Book Title: Ashtsahastri Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 456
________________ चार्वाक मत निरास ] प्रथम परिच्छेद . ३७३ लक्षणत्वात्प्रतिषेध्याभावसाधनात् । नात्र सजातीयत्वविशेष स्योपादानोपादेयभाव-4 व्यापकत्वमसिद्धं विजातीयत्वाभिमतयोः पयःपावकयोः सत्त्वादिना सजातीययोरपि तदनुपगमात् 'कथञ्चिद्विजातीययोरपि मृत्पिण्डघटाकारयोः पार्थिवत्वादिना विशिष्टसामान्येन सजातीययोरुपादानोपादेयभावसिद्ध : 1"कथं हिसजातीयत्वविशेषस्य तत्त्वान्तरभावेन विरोध इति चेत्तत्त्वान्तरभूतयोस्तदनुपलम्भात्, “पूर्वाकारापरित्यागाऽजहद्वृत्तोत्तराकारान्वय". प्रत्यय विषयस्योपादानत्वप्रतीते:19, परित्यक्तपूर्वाकारेण द्रव्येणात्मसात्क्रियमाणोत्तराकारस्योपादेयत्व निर्ज्ञानादन्यथा तिप्रसङ्गात् । उपादान उपादेय भाव व्यापक है, वह सजातीय विशेष है। उसके विरुद्ध भिन्न-भिन्न तत्त्व रूप से व्याप्त होने से यह "विभिन्न लक्षणत्व" हेतु प्रतिषेध्य (चैतन्य) के अभाव को सिद्ध करता है। यहाँ सजातीयत्व विशेष में उपादान-उपादेय भाव का व्यापकपना असिद्ध भी नहीं है क्योंकि विजातीय रूप से स्वीकृत जल और अग्नि में सत्त्वादि सामान्य धर्मों से सजातीयपना होने पर भी उपादानउपादेय रूप व्यापकपना आपने नहीं माना है और जो कथंचित् विजातीय भी हैं ऐसे मृत्पिड और घट के आकार में अर्थात मत्पिड द्रव्य है और घट का आकार पर्याय है इस प्रकार द्रव्य और पर्याय की अपेक्षा से विजातीय होने पर भी पार्थिव आदि से विशिष्ट सामान्य धर्म की अपेक्षा से हैं इस मृत्पिड और घट आकार में उपादान-उपादेय भाव सिद्ध है। चार्वाक-पुनः सजातीय विशेष में तत्त्वांतर भाव से विरोध क्यों हैं ? जैन-विरोध इसलिए है क्योंकि भिन्न-भिन्न तत्त्व में वह उपादान उपादेय भाव नहीं पाया जाता है। [उपादान का लक्षण ] पूर्वाकार का परित्याग रूप व्यय और उत्तराकार का उत्पाद इन दोनों में अजहवृत्त (अपने 1 प्रतिषेध्यस्य चेतनस्याभावसाधनात् । 2 नन्वेवं तन्वादेर्घटाद्याकारस्य चोपादानोपादेयभावः स्यात्, पार्थिवत्वादिविशिष्टसामान्यसद्भावाविशेषादिति न शनीयं, व्यापकस्य सजातीयत्वस्योपादानोपादेयाख्यव्याप्याभावेपि व्यवस्थानाविरोधात "व्यापकं तदतन्निष्ठं व्याप्यं तन्निष्ठमेव च" इत्यादिवचनादित्याशयगर्भमाह नहीति । 'भिन्नलक्षणत्व' हेती। 3 सजातीयमानं व्यापकं (ब्या०प्र०)4 उपादानोपादेयभावसाधनं प्रति । ता। (ब्या०प्र०)5 सत्त्वेन, प्रमेयत्वेन, वस्तुत्वेन इत्यादिना लक्षणेन सजातीययोरपि तथापि विजातीयत्वेन अंगीकृतयोः जलानलयोः उपादानोपादेयभावश्चार्वाकनांगीक्रियते । तथाऽस्माभिर्भूतचेतनयोरुपादानोपादेयभावो नांगीक्रियते । दि. प्र.। 6 सजातीयत्वस्य उपादानोपादेयभावव्यापकत्वानुपगमात् । 7 मृत्त्वघटत्वप्रकारेण । 8 मृद्घटाकारयोः इप्ति पा, 1 (ब्या० प्र०) 9 द्रव्यपर्याययोः । 10 चार्वाकः। 11 पयःपावकयोः सत्त्वादिना सजातीयत्वमापादितं तर्हि विरोधः कथं स्यादित्याशंकायामग्रे प्रत्युत्तरयति । (ब्या० प्र०) 12 तर्हि कुत्र सजातीयत्वं वर्तते इत्या शङ्कयअन्तगू ढसजातीयत्वनिमित्तकमुपादानोपादेयभावमाह व्ययः पूर्वाकारपरि-इति पाठान्तरम् । 15 बसः । (ब्या० प्र०) 16 द्रव्यस्य । (ब्या० प्र०) 17 उत्पादरूपेण । 18 अन्वयः अनुवर्तनम् । 19 प्रत्ययो ज्ञानम्। 20 द्रव्यस्य । (ब्या० प्र०) 20 पयःपावकयोरप्युपादानोपादेयभावो मास्तु ततः। 21 उक्त प्रकारस्योपादानोपादेयत्वप्रतीत्यभावे । 22 पयःपावकयोरप्युपादानोपादेयत्वप्रसंगात् । (ब्या० प्र०) 23 (मेच कादिषु चित्रज्ञानाभावप्रसङ्गात्) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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