Book Title: Ashtsahastri Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 473
________________ ३६० ] अष्टसहस्री [ कारिका ६ककारणप्रतिवर्णनं सर्वकार्योत्पत्तौ 'विरुध्यते । तदभ्युपगच्छता मेचकज्ञानमनेकार्थग्राहि नानाशक्त्यात्मकमुररीकर्तव्यम् । तेन' च विरुद्धधर्माधिकरणेन केन प्रकृतहेतोरनकान्तिकत्वान्न ज्ञानादीनामात्मनो भेदैकान्तसिद्धिय॑नात्मानन्तज्ञानादिरूपो न भवेत् । निराकरिष्यमाणत्वाच्चाग्रतो गुणगुणिनोरन्यतैकान्तस्य', न ज्ञानादयो गुणाः सर्वथात्मनो भिन्नाः शक्याः प्रतिपादयितुं यतोऽशेषविशेषगुणनिवृत्तिर्मुक्तिर्व्यवतिष्ठेत । [ मुक्तौ क्षयोपशमिकादिज्ञानसुखादीनामभावो न चानंतसुखादीनां ] ननु10 च धर्माधर्मयोस्तावन्निवृत्तिरात्यन्तिकी मुक्तौ प्रतिपत्तव्या, अन्यथा12 13तदनु यौग-पीतग्रहण शक्ति से या नोलग्रहण शक्ति से अर्थात् किसी भी एक शक्ति से पीत नीलादि रूप अनेक पदार्थों को ग्रहण करने वाला चित्रज्ञान है हम ऐसा नहीं मानते हैं। जैन-तो आप क्या मानते हैं ? योग-नील, पीतादि, प्रतिनियत अनेक पदार्थों को ग्रहण करने वाली जो शक्ति है उस एक शक्ति से नील पीतादि अनेक पदार्थों को ग्रहण करने वाला चित्रज्ञान है इस प्रकार मानते हैं। __ जैन-तब तो कार्य में होने वाला भेद कारण शक्ति के भेद की व्यवस्था का हेतु नहीं होगा इस प्रकार से तो यह विश्व एक हेतु से ही नाना रूप हो जावेगा। फिर सभी कार्यों की उत्पत्ति में अनेक कारणों का वर्णन करना विरुद्ध हो जावेगा। अर्थात् योगमत में जितने कार्य हैं उतने ही उनके कारण हैं इस प्रकार की मान्यता है उसमें विरोध आ जावेगा । अतः इस विरोध का परिहार करने के लिये चित्रज्ञान अनेक पदार्थों को ग्रहण करने वाला है एवं वह अनेक शक्त्त्यात्मक है ऐसा स्वीकार करना ही चाहिये। इसलिये अनेक विरुद्ध धर्मों के आधारभूत उस एक चित्रज्ञान से "विरुद्ध धर्माधिकरणत्वात्" हेतू व्यभिचरित हो जाता है अतः ज्ञानादिक आत्मा से भिन्न हैं। इस प्रकार से भेद एकांत की सिद्धि नहीं होती है जिससे कि आत्मा अनंत ज्ञानादि रूप न होवे अर्थात् आत्मा अनंतज्ञानादि रूप सिद्ध हो जाता है और गुण-गुणी में एकांत से भिन्नपना है इस पक्ष का आगे चतुर्थ परिच्छेद में निराकरण करेंगे। __ आत्मा से ज्ञानादि गुण सर्वथा भिन्न हैं ऐसा प्रतिपादन करना शक्य नहीं है जिससे कि अशेष 1 यावन्ति कार्याणि तावन्ति कारणानीति योगमतं विरुध्यते । 2 तद्विरोधमंगीकुर्वता । तत्सर्वकार्यमनेककारणकमंगीकुर्वता । दि. प्र.। 3 शक्तेरेवानभ्युपगमान्न कश्चिद्दोष इत्याशंकायां शक्तिरहितेन ज्ञानेन यथा नीलादिग्रहणं तथातीतानागतवर्तमानाशेषपदार्थग्रहणमपि केन निवार्यते इति वक्तव्यं । अथवा तच्छक्ति समर्थन प्रमेयकमलमार्तडे द्वितीयपरिच्छेदे प्रत्यक्षतर भेदादिति सूत्रव्याख्यानावसरे प्रपंचतः प्रोक्तमत्रावगंतव्यं । दि. प्र.। 4 मेचकज्ञानेन । 5 विरुद्धधर्माधिकरणत्वादित्यस्य। 6 मेचकज्ञानस्य तदाकारादभेदेपि विरुद्धधर्माधिकरणत्वसिद्धेः। 7 एकस्यानेकवृत्तिर्नेत्यादिकारिकाव्याख्यानावसरे चतुर्थपरिच्छेदे। 8 गुणगुण्यन्यत इति पा.। (ब्या० प्र०) 9 भेदै कान्तस्य । 10 योगः। 11 जैनः । (ब्या० प्र०) 12 धर्माधर्मयोरात्यंतिकी निवृत्तिर्नास्ति चेत् तदा तस्या मुक्तेरुत्पत्तिर्नास्ति दि. प्र.। 13 तस्याः , मुक्तेः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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