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प्रथम परिच्छेद
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चार्वाक मत निरास ] चार्वाक, मीमांसक और नैयायिक ज्ञान को स्वसंविदित नहीं
मानते हैं उनके खंडन का सारांश
अस्वसंविदित ज्ञानवादी कहता है कि "ज्ञान स्वसंविदित नहीं है फिर भी बाह्य पदार्थों का प्रकाशक है जैसे कि दीपक आदि अस्वसंविदित होकर भी बाह्य पदार्थ के प्रकाशक देखे जाते हैं।
जैनाचार्य कहते हैं कि प्रदीप आदि तो अचेतन हैं अतः बाह्य पदार्थ को जानने वाले नहीं हैं मात्र ज्ञान की उत्पत्ति में कारण हैं, किन्तु ज्ञान तो बाह्य पदार्थों को जानने वाला भी है और स्वसंवेदन लक्षण वाला है । सुखादि ज्ञान भी अपने से बहिर्भूत सुखादि के जानने वाले हैं कथंचित् वे भी बाह्य ही हैं।
सुखादि सातावेदनीय के उदय से हुए हैं एवं ज्ञान ज्ञानावरण के क्षयोपशम से हुआ है अतः सुख और सुख का ज्ञान कथंचित् भिन्न ही हैं । एवं सभी ज्ञान स्वपर परिच्छेदक माने गये हैं।
कोई कहे कि "स्वात्मनि क्रियाविरोधात्" नियम से ज्ञान स्व को कैसे जानेगा? इस पर आचार्य प्रश्न करते हैं कि स्वात्मा में धात्वर्थ लक्षण क्रिया का विरोध है या परिस्पंदात्मक क्रिया का? प्रथम पक्ष तो ठीक नहीं है कारण कि "पृथ्वी अस्ति" इत्यादि रूप से अस्तित्व आदि क्रिया का विरोध हो जाने से सभी का अस्तित्व ही समाप्त हो जावेगा।
यदि दूसरा पक्ष लेवें तो क्रिया का स्वात्मा कौन है ? क्रिया का स्वरूप या क्रियावान् आत्मा अर्थात् करना, बनाना आदि अर्थ रूप क्रिया ? यदि क्रिया का स्वरूप कहें तो अपने स्वरूप का कोई विरोधी नहीं है । दूसरे पक्ष में भी क्रियावान् द्रव्य में ही क्रिया पाई जाती है । तीसरे पक्ष में करने, बनाने रूप क्रिया स्वात्मा में कोई भी मानते ही नहीं हैं । अतः ज्ञान रूप क्रिया का स्वात्मा में विरोध न होने से सभी ज्ञान स्वसंवेदी हैं यह बात सिद्ध हो जाती है ।
ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम विशेष से ज्ञान स्वपर प्रकाशक है प्रदीपादि के समान । तथा इस ज्ञान लक्षण से ही आत्म तत्त्व की सिद्धि हो जाने से संसार और मोक्ष एवं उनके कारण भी सिद्ध ही हो जाते हैं।
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