Book Title: Ashtsahastri Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 462
________________ चार्वाक मत निरास ] प्रथम परिच्छेद [ ३७६ कालभावभव विशेषहेतुकत्वप्रतीतेश्च नाहेतुकसंसारसाधनानुमानमनवद्यम् । इति न किञ्चिदनुमानं संसारोपायतत्त्वस्य बाधकम् । नाप्यागमः, तस्य तत्साधकत्वात् “मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः' इति वचनात्, बन्धहेतूनामेव संसारहेतुत्वात् । तदेवं मोक्षसंसारतत्कारणतत्त्वं भगवतोभिमतं प्रसिद्धेन प्रमाणेन युक्तिशास्त्राख्येनाबाध्यं सिध्यत्तद्वाचो युक्तिशास्त्राविरोधित्वं साधयति, तच्च 4निर्दोषत्वम् । इति त्वमेव स सर्वज्ञो दर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बंधहेतवः' इस प्रकार सूत्र है, क्योंकि बंध के कारण ही संसार के कारण हैं। भावार्थ-यहाँ जैनाचार्य संसार को सहेतुक सिद्ध करते हैं तब यह प्रश्न स्वाभाविक ही है कि जब संसार अनादि है तब कारणों से उत्पन्न हुआ कैसे होगा? और कारणों से उत्पन्न नहीं होगा तब उस संसार का अन्त भी कैसे हो सकेगा। इस प्रकार प्रश्न होने पर आचार्य उत्तर देते हैं कि हम संसार को सर्वथा अनादि अनंत नहीं मानते हैं क्योंकि हम स्याद्वादी हैं । कथंचित् द्रव्यदृष्टि से संसार अनादि अनंत है एवं पर्यायाथिक नय की अपेक्षा से सादि सांत है । यद्यपि आत्मा के साथ कर्मों का सम्बन्ध अनादिकाल से ही है फिर भी के कारण आत्मा के रागादि परिणाम हैं और रागादि परिणामों के लिये कारणभत वह कर्म का उदय है अतः यह पंच परिवर्तन रूप संसार सहेतुक ही है और जब सहेतुक है तब इसके हेतुओं का नाश करने से संसार का भी नाश हो जाता है । संसार के हेतु मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग अथवा मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र हैं। संसार का यह नाश कतिपय भव्य जीवों की अपेक्षा हो कहा गया है क्योंकि संसार में इतनी जीव राशि है कि जिसमें से अनंतानंत काल से अनंतानत जीव मोक्ष को प्राप्त कर चुके हैं और भविष्य में भी अनंतानंत जीव मोक्ष जाते रहेंगे फिर भी आगामी अनतानंत काल तक भी जीवराशि कम नहीं होगी, न सिद्धों में वृद्धि की ही समस्या आवेगी क्योंकि यदि अनंत का भी अन्त हो जावे फिर वह अनंत कैसे कहा जावेगा । अतः यह संसार अहेतुक नहीं है और न केवल स्वयं की भूल से हो है यह तो कर्मोदय निमित्तक भी है और मिथ्या, अविरति आदि निमित्तक भी है। प्रत्येक कार्यों के लिये अनेक कारण होते हैं । द्रव्य कर्मों का उदय और मिथ्या, अविरति आदि रूप परिणाम ये दोनों ही कारण संसार के कारण हैं। यहाँ जो दिखता है उसे ही संसार नहीं समझना, प्रत्युत जो भवांतर की प्राप्ति है वह संसार है इसीलिये "संसरणं संसार:" यह व्युत्पत्ति अर्थ सार्थक है। इस प्रकार भगवान् के द्वारा प्रतिपादित मोक्ष, संसार एवं उन दोनों के कारणभूत तत्त्व 1 द्रव्यक्षेत्रकालभावभवभेदात्पञ्चधा संसारः। 2 प्रसिद्धप्रामाण्यः । (ब्या० प्र०) 3'युक्तिशास्त्राविरोधित्वम् । 4 साधयतीत्यध्याहीय पदम्। 5 साधितः सत् । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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