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अष्टसहस्त्री
[ वैशेषिकाभिमतमोक्षस्य निराकरणं ]
'एतेन बुद्धयादिविशेषगुणोच्छेदादात्मत्वमात्रेवस्थानं मुक्तिरिति कणभक्षाक्षपादमतं' प्रमाणेन बाधितमुपदर्शितं पुंसोनन्तज्ञानादिस्वरूपत्वसाधनात् स्वरूपोपलब्धेरेव मुक्तित्वसिद्धेः । स्यान्मतं' "न बुद्ध्यादयः पुंसः स्वरूपं ततो भिन्नत्वादर्थान्तरवत् । ततो ' 'भिन्नास्ते 'तद्विरुद्धधर्माधिकरणत्वादूघटादिवत् । तद्विरुद्धधर्माधिकरणत्वं' पुनस्तेषामुत्पाद
भावार्थ- सांख्य कहता है कि चेतन के साथ अचेतन रूप ज्ञान सुख आदि का सम्पर्क हो रहा है अतः ये ज्ञान और सुख चेतन दिखते हैं वास्तव में ये अचेतन हैं ।
[ कारिका ६
इस मान्यता पर ऐसा भी कहा जा सकता है कि आत्मा स्वयं अचेतन है और ज्ञानचेतना के संसर्ग से चेतनवत् दिख रही है फिर तो नैयायिक का ही मत आ जावेगा जो कि आपको इष्ट नहीं है अथवा चेतन आत्मा के संसर्ग से शरीर को भी चेतन कहना पड़ेगा किन्तु यह भी बात नहीं है । अतः निष्कर्ष यही निकलता है कि ज्ञानादि गुण चेतन हैं और आत्मा के स्वभाव हैं । उन अनन्तज्ञान आदि चैतन्य गुणों को प्राप्त कर लेना ही मोक्ष है ।
श्री पूज्यपाद स्वामी ने इष्टोपदेश में कहा भी है कि
यस्य स्वयं स्वभावाप्तिरभावे कृत्स्नकर्मणः । तस्मै संज्ञानरूपाय नमोऽस्तु परमात्मने || १ ||
सम्पूर्ण कर्मों का अभाव हो जाने पर जिनको स्वयं अपने स्वभाव की प्राप्ति हो गई है ऐसे ज्ञान स्वरूप परमात्मा को मेरा नमस्कार हो ।
[ वैशेषिक द्वारा मान्य मोक्ष का खण्डन
बुद्धि आदि विशेष गुणों का उच्छेद (नाश) हो करके सामान्य आत्मा मात्र में अवस्था न होना इसी का नाम मोक्ष है । इस प्रकार से कणाद, अक्षपाद ( वैशेषिक, नैयायिक) ने मुक्ति का लक्षण माना है, किन्तु उपर्युक्त खण्डन से इनका भी खण्डन हो जाता है अतः यह कथन भी प्रमाण बाधित है क्योंकि पुरुष आत्मा का स्वरूप अनन्त ज्ञानादि रूप सिद्ध किया गया है और स्वरूप की उपलब्धिप्राप्ति होना ही मोक्ष है । यह बात सिद्ध हो जाती है ।
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वैशेषिक, नैयायिक – बुद्धि आदि गुण आत्मा के स्वरूप नहीं है क्योंकि आत्मा से भिन्न हैं जैसे अन्य अचेतन पदार्थ । वे बुद्धि आदि पुरुष से भिन्न ही हैं क्योंकि वे पुरुष से विरुद्ध धर्म के आधार
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1 प्रमाणेन साँख्याभिमतमोक्षत्त्वनिराकरणद्वारेण । ( ब्या० प्र० ) 2 वैशेषिकनैयायिकमतम् । 3 वैशेषिकनैयायिकयोः । 4 पुंसः । 5 अत्राह कश्चित् हे योग ! ततो भिन्नत्वादिति हेतुः असिद्ध इति न ते बुद्ध्यादयः ततो भिन्ना भवंति इति साध्यो धर्मः इत्यादि । दि. प्र. । 6 ततः पुंसः । 7 स्याद्वादी सांख्यं प्रति पृच्छति बुद्ध्यादीनां तद्विरुद्धधर्माधिकरणत्वं कुत इति प्रश्ने आह । दि. प्र. ।
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