Book Title: Ashtsahastri Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan
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३७४ ]
अष्टसहस्री
[ कारिका ६[भिन्नलक्षणत्वहेतुभिन्नभिन्नतत्त्वेन कथं व्याप्तमिति प्रश्ने सति समाधानं ] कथं तत्त्वान्तरभावेन भिन्नलक्षणत्त्वं व्याप्तमिति चेत् तदभावेनुपपद्यमानत्वात् । किण्वादिमदिरादिपरिणामयोरतत्त्वान्तरभावेपि भिन्नलक्षणत्वस्य' दर्शनात्तस्य तेनाव्याप्तिरिति चेन्न, 'तयोभिन्नलक्षणत्वासिद्धेः, किण्वादेरपि मदजननशक्तिसद्भावान्मदिरादिपरिणामवत् । सर्वथा मदजननशक्तिविकलत्वे हि किण्वादेर्मदिरादिपरिणामदशायामपि तद्वैकल्यप्रसङ्गः । 'नन्वेवं भूतान्तस्तत्त्वयोरपि भिन्नलक्षत्वं मा भूत्, कायाकारपरिणतभूतविशेषावस्थातः प्रागपि क्षित्यादिभूतानां चैतन्यशक्तिसद्भावादन्यथा 'तदवस्थायामपि चैतन्योभृतिविरोधादिति न प्रत्यवस्थेयं, चेतनस्यानाद्यनन्तत्वप्रसिद्धरात्मवादिनामिष्टप्रति
मूल स्वभाव को न छोड़कर) होता हुआ अन्वयरूप से ज्ञान का विषयभूत पदार्थ है वही उपादान है। क्योंकि पूर्वाकार को जिसने छोड़ दिया है ऐसे द्रव्य के द्वारा आत्मसात् (ग्रहण) किया गया जो उत्तराकार है उसे ही उपादेय स्वीकार किया गया है। यदि ऐसा न मानें तो अतिप्रसंग दोष आ जावेगा।
[भिन्न लक्षणत्व हेतु भिन्न-भिन्न तत्त्व से व्याप्त है यह बात कैसे बनेगी? इसका समाधान । ] शंका-भिन्न तत्त्व के साथ भिन्न लक्षण की व्याप्ति कैसे है ? समाधान-भिन्न तत्त्व के अभाव में भिन्न लक्षण भी नहीं पाया जाता है।
चार्वाक-किण्वादि (मदिरा के लिए कारण भूत गुड़, आटा, महुआ आदि) और मदिरा परिणाम इन दोनों में भिन्न तत्त्व का अभाव होने पर भी भिन्न लक्षणपना देखा जाता है अर्थात् कारणभूत गुड़ महुआ आदि में स्वतन्त्र रूप से मद को उत्पन्न करने की शक्ति नहीं है और मदिरा परिणाम में मदजनक शक्ति विद्यमान है अतः दोनों का लक्षण भिन्न-भिन्न पाया जाता है। इसलिये भिन्न लक्षणत्व हेतु की भिन्न तत्त्व के साथ अव्याप्ति है।
जैन-ऐसा नहीं कह सकते। किण्वादि और मदिरा में भिन्न लक्षण की असिद्धि है। किण्वादिक (गुड़, महुआ, आटा) में भी मद को उत्पन्न करने की शक्ति का सद्भाव है, मदिरा आदि रूप से परिणत द्रव्य के समान । क्योंकि सर्वथा मद को उत्पन्न करने की शक्ति से रहित होने पर आटा, गुड़, महुआ आदि पदार्थ मदिरा रूप से परिणत अवस्था में भी मद को उत्पन्न करने को शक्ति से रहित हो जावेंगे।
चार्वाक-पुनः इस प्रकार से भूत और अन्तस्तत्त्व (चैतन्य) में भी भिन्न लक्षण न होवे
1 तत्त्वान्तरभावाभावे । 2 भिन्नलक्षणत्वस्य । 3 चार्वाकः । किण्वादि, कारणरूपपिष्टगुडधातक्यादि। 4 मदशक्त्यजनकत्वस्य मदशक्तिजनकत्वस्य च । 5 (भिन्नलक्षणत्वस्य तत्त्वान्तरभावेन सह) 6 किण्वादिमदिरादिपरिणामयोः । 7 (किण्वादेर्मदजननशक्तिसद्भावप्रकारेण । 8 (अन्तस्तत्त्वं हि चित्)। 9 अन्यथा चैतन्यशक्त्यसद्भावे कायाकारपरिणत भूतविशेषावस्थामपि चैतन्योत्पत्तिविरुद्धयते इत्युक्तवंतं चार्वाकं प्रत्याह जैनः । इयं प्रतिकूलता न किंतु अस्मदभीष्टसिद्धिः कस्मादात्मवादिनामभीष्टस्थापनात् । दि. प्र.। 10 न पूर्वपक्षीकरणीयं । (ब्या० प्र०) 11 ता। (ब्या० प्र०)
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