Book Title: Ashtsahastri Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 453
________________ ३७० ] अष्टसहस्री [ कारिका ६[ स्वात्मनि क्रियाविरोधात् ज्ञानं स्वं न जानाति अस्य विचार: क्रियते । ] स्वात्मनि क्रियाविरोधान्न स्वरूपसंवेदकं ज्ञानमिति चेत् का पुनः क्रिया स्वात्मनि विरुध्यते ? न तावद्धात्वर्थलक्षणा', भवनादिक्रियायाः क्षित्यादिष्वभावप्रसङ्गात् । 'परिस्पन्दात्मिका क्रिया स्वात्मनि विरुद्ध ति चेत्, कः पुनः क्रियायाः स्वात्मा ? क्रियात्मैवेति चेत् कथं तस्यास्तत्र विरोधः ? स्वरूपस्य विरोधकत्वायोगात् । अन्यथा सर्वभावानां स्वरूपविरोधानिस्स्वरूपतानुषङ्गात् । [ स्वात्मा में क्रिया का विरोध होने से ज्ञान स्वयं को नहीं जानता है इस पर विचार ] शंका-अपने में ही क्रिया का विरोध होने से ज्ञान स्वरूप संवेदक अर्थात् अपने को जानने वाला नहीं है। समाधान- यदि आप ऐसा कहते हैं तो यह बताइये कि कौन सी क्रिया अपने में विरुद्ध होती है धात्वर्थ लक्षण क्रिया या परिस्पंदात्मक क्रिया ? धात्वर्थ लक्षण क्रिया तो अपने में विरुद्ध नहीं है अन्यथा भू-अस् आदि धातु की "होना" आदि क्रिया का पृथ्वी आदि में विरोध होने से उनके अभाव का प्रसंग आ जावेगा । अर्थात् "पृथ्वी अस्ति" पृथ्वी है इस वाक्य में अस्ति क्रिया का अपने रूप कर्ता में यदि विरोध होगा तो पृथ्वी का अभाव ही हो जावेगा। यदि आप कहें कि परिस्पंदात्मक क्रिया का स्वात्मा में विरोध है तो पुनः क्रिया का स्वात्मा कौन है ? यदि कहें कि क्रिया की आत्मा (स्वरूप) ही स्वात्मा है तो उस क्रिया का उसमें कैसे विरोध होगा? क्योंकि स्वरूप अपना विरोधी नहीं होता है। यदि स्वरूप भी अपना विरोधी होगा तो पुनः सम्पूर्ण पदार्थों का अपने-अपने स्वरूप से विरोध हो जाने से सभी पदार्थ निः स्वरूप-स्वरूप रहित हो जावेंगे एवं निः स्वरूप हो जाने से कोई भी पदार्थ सिद्ध नहीं होगा पुनः सर्वशून्य का प्रसंग आ जावेगा। दूसरी बात यह है कि विरोध के द्विष्ठपना है अर्थात् विरोध दो वस्तुओं में ही होता है एक में नहीं इसलिए भी स्वात्मा में क्रिया का विरोध नहीं हो सकता । यदि आप कहें कि क्रिया जिसमें पाई जावे ऐसा क्रियावान् आत्मा क्रिया का स्वात्मा है तो फिर क्रियावान् में क्रिया का विरोध कैसे होगा? क्रियावान् द्रव्य में ही तो सभी क्रियाओं की प्रतीति होती है अतः अविरोध सिद्ध ही है। यदि आप कहें कि क्रिया का अर्थ है करना, बनाना। इन अर्थवाली क्रियाओं का ही स्वात्मा में विरोध है तब तो ज्ञान स्वरूप को निष्पन्न करता है ऐसा हम जैनी तो मानते भी नहीं हैं जिससे कि विरोध हो सके अर्थात् विरोध नहीं है। भावार्थ-शंकाकार ज्ञान को स्वसंवेदक न मानते हुये ऐसा कहता है कि “स्वात्मनि क्रिया 1 खड्गे स्वात्मछेदनवत् । (ब्या०प्र०) 2 धात्वर्थलक्षणा परिस्पंदात्मिका वा उत्पत्तिलक्षणा वा इति विकल्पः-दि. प्र.। 3 उत्पत्तिलक्षणा ज्ञप्तिलक्षणा परिस्पंदात्मिकाऽपरिस्पंदात्मिका वा-दि. प्र.। 4 अन्यथा। स्थान । (ब्या० प्र०) 5 ज्ञानस्य क्षित्यादिविवर्तत्वात् । (ब्या० प्र०) 6 क्षितिर्भवति तिष्ठतीत्यादि । (ब्या० प्र०) 7 उत्क्षेपणावक्षेपणादिरूपा। 8 स्वरूपस्यापि विरोधकत्वे। 9 भा। (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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