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ज्ञान अस्वसंविदित नहीं है ]
प्रथम परिच्छेद
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विज्ञानस्यासम्भवात्कि स्वस्य संवेदकं ज्ञानं स्यादिति चेन्न, तस्यैव घटादिसुखादिज्ञानस्य स्वरूपसंवेदकस्य 'सतः परसंवेदकत्वोपगमात् स्वसंवेदनसिद्धेः, स्वपरव्यवसायात्मकत्वातु सर्ववेदनस्य ।
सर्वथा भिन्न नहीं है। यदि ऐसा नहीं मानों तो कुंभादि सर्वथा असत् रूप हो जावेंगे परन्तु ऐसा है नहीं अतः सुखादि ज्ञान से सुखादि भी कथंचित् अपने से भिन्न ही प्रतीति में आते हैं क्योंकि सुख आदि और उनका संवेदन इन दोनों में कारण आदि के भेद से भेद पाया ही जाता है अर्थात् सुख का कारण सातावेदनीय का उदय है और उस सुख के ज्ञान का कारण ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम आदि हैं अतएव कारण के भेद से सुख और सुख के वेदन (ज्ञान) में भेद सिद्ध ही है।
शंका-तो फिर घटादि के ज्ञान के समान सुखादि का ज्ञान भी अपने से बहिर्भत पदार्थों का परिच्छेदक हो जाता है । पुनः बाह्य पदार्थ से भिन्न-जो स्वयं है उसका स्वयं का ज्ञान न होने से ज्ञान अपने आपका संवेदक (जानने वाला) कैसे होगा?
समाधान-ऐसा नहीं है । वे ही घटादि के ज्ञान और सुखादि के ज्ञान अपने स्वरूप को जानने वाले होते हुये ही पर को जानने वाले होते हैं ऐसा स्वीकार किया गया है इसीलिये उन ज्ञानों में स्वसंवेदनपना सिद्ध है क्योंकि सभी ज्ञान स्वपर व्यवसायात्मक ही माने गये हैं।
भावार्थ-चार्वाक, मीमांसक और नैयायिक ये ज्ञान को आत्मा का गुण एवं स्वपर प्रकाशी नहीं मानते हैं । चार्वाक कहता है कि ज्ञान भूतचतुष्टय का गुण है।
मीमांसक कहता है कि ज्ञान परोक्ष है पर पदार्थों को ही जानता है आत्मा को नहीं जानता अत: अस्वसविदित है । नैयायिक कहता है कि ज्ञान स्वयं-स्वयं को नहीं जानता है अन्य ज्ञान के द्वारा ही स्वयं को जानता है किन्तु जैनाचार्य इन सभी का निराकरण करके ज्ञान को स्वपर प्रकाशी सिद्ध करते हैं क्योंकि जो स्वयं में जड़ है वह दूसरे को क्या जानेगा?
इन लोगों का कहना है कि प्रदीप आदि कुछ ऐसे साधन हैं जो कि स्वयं को नहीं जानते हैं जड़ हैं फिर भी दूसरे पदार्थों का ज्ञान करा देते हैं। तब आचार्य ने इनको समझाया कि भाई ! ये अचेतन पदार्थ ज्ञान के साधन हैं यदि आत्मा का ज्ञान गुण जानने वाला न हो तो ये विचारे किंकर्तव्यविमूढ़ सदृश पड़े रहेंगे, पत्थर को पदार्थों का प्रकाशन नहीं करा सकते हैं चेतन आत्मा ही अपने ज्ञान गुण से बाह्य दीपक आदि साधनों के द्वारा पदार्थों को जानती है। यह ज्ञान गुण जब तक आवरण कर्म से सहित है तभी तक इन्द्रिय, मन, प्रदीप, प्रकाश आदि बाह्य पदार्थों की अपेक्षा रखता है। जब आवरण से रहित केवलज्ञान बन जाता है तब स्वयं सारे लोकालोक को प्रकाशित कर देता है अतः ज्ञान स्वपर प्रकाशी है यह बात सिद्ध है।
1 भवतः ।
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