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चार्वाकमत निरास 1 प्रथम परिच्छेद
[ ३६३ [ शब्दविद्युदादय उपादानमंतरेणोत्पद्यन्ते इति चार्वाकमान्यतायां प्रत्युत्तरं ] शब्दविद्युदादेरुपादानादर्शनाददोष इति चेन्न, शब्दादिः सोपादान एव, कार्यत्वाद् घटादिवदित्यनुमानात्तस्यादृश्योपादानस्यापि सोपादानत्वस्य साधनात् ।।
[ भूतचतुष्टयचेतनयोभिन्नलक्षणत्वेन पृथक्-पृथक् तत्त्वमेवेति कथयति जैनाचार्याः ] भनन्वस्तु सर्वोग्निरग्न्यन्तरोपादान एव सर्वस्य सजातीयोपादानत्वव्यवस्थितेः । चेतनस्य तु चेतनान्तरोपादानत्वनियमो न युक्तः, तस्य भूतोपादानत्वघटनात्, भूतचेतनयोः सजातीयत्वात्तत्त्वान्तरत्वासिद्धेरिति चेन्न, 'तयोभिन्नलक्षणत्वात्तत्त्वान्तरत्वोपपत्तेः, तोयपावकयोरपि तत' एव 1 परैस्तत्त्वान्तरत्वसाधनात् । तथा हि । तत्त्वान्तरं भूताच्चैतन्यं, तद्भिन्नलक्षणत्वान्यथानुपपत्तेः । न तावदसिद्धो हेतुः क्षित्यादिभूतेभ्यो 1 रूपादिसामान्यलक्षणेभ्यः स्वसंवेदनलक्षणस्य
[ भूतचतुष्टय एवं चेतन का लक्षण भिन्न-भिन्न होने से ये भिन्न तत्त्व हैं इस पर विचार ]
चार्वाक-तो ठीक है सभी अग्नि भिन्न अग्निरूप उपादान कारण से ही होती है अतः उन सभी का उपादान सजातीय हो है ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए, किन्तु चेतन द्रव्य भिन्न चैतन्य रूप उपादान से होता है यह नियम ठीक नहीं है। वह चैतन्य तो भूतचतुष्टय के उपादान से उत्पन्न होता है। भूत से चैतन्य की उत्पत्ति होने से भूत और चैतन्य में सजातीयपना सिद्ध होता है अतः भूत और चैतन्य में भिन्न तत्त्व की सिद्धि नहीं होती है।
जैन-यह ठीक नहीं है भूत और चैतन्य इन दोनों का भिन्न-भिन्न लक्षण पाया जाता है इसलिए भिन्न तत्त्व की सिद्धि होती है । आप चार्वाक ने भी जल और अग्नि का भिन्न-भिन्न लक्षण होने से उन्हें भिन्न-भिन्न तत्त्व माना है । तथाहि
"चैतन्य तत्त्व भूत तत्त्व से भिन्न है क्योंकि उनके भिन्न-भिन्न लक्षणों की अन्यथानुपपत्ति पायी जाती है" यह 'भिन्न लक्षणत्व' हेतु असिद्ध भी नहीं है । रूप, रस, गंध स्पर्श रूप सामान्य लक्षण वाले पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु रूप चार भूतों से स्वसंवेदन रूप चैतन्य का भिन्न लक्षण सिद्ध ही है भूतचतुष्टय स्वसंवेदन लक्षण वाले नहीं हैं। क्योंकि हम और आप सभी अनेक ज्ञाता जनों के प्रत्यक्ष
1 प्रतिपक्षबाधितविषयोऽयं हेतुरिति चेन्न । विवादापन्नः परः बुद्धियुक्तः व्याहारादिकार्यदर्शनादित्यत्रापि तत्प्रसंगात् । अत्र बुद्धेरदृश्यत्वाददोष इति चेत्तत्रापि तत एव सोऽस्तु विशेषाभावात् । यथाज्ञानं चार्वाकेण ज्ञानस्यास्वसंबेदनतत्त्वोपगमात् । साध्यव्यावृत्ती व्यतिरेको दृश्यंत इति न मंतव्यं । समनंतरमेव ज्ञानस्य स्वसंवेदनस्य समर्थयिष्यमाणत्वात दि. प्र.। 2 अदश्यमुपादानं पूगलरूपं यस्य तस्य । 3 सोपादानत्वसाधनात् इति पा.-दि. प्र.। 4 चार्वाकः । 5 कार्यस्य। 6 भूताच्चैतन्योत्पत्तिर्यतस्ततो भूतचैतन्ययोः सजातीयत्वम् । 7 भूतचैतन्ययो:-दि.प्र.। 8 भवतु भिन्नलक्षणत्वं तथापि तत्त्वांतरत्वं कूत इत्याह । (ब्या०प्र०) 9 भिन्नलक्षणत्वात् । 10 चार्वाकैः। 11 रूपरसगन्धस्पर्शवन्तः पुद्गलाः ।
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