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सर्वज्ञसिद्धि ] प्रथम परिच्छेद
[ ३१७ यदि कोई कहे कि जैसे जीव में दोष, आवरण की अत्यंत (पूर्णतया) हानि देखी जाती है वैसे ही आप जैन बुद्धि की भी हानि-नाश मान लो। इस पर उत्तर यही है कि किसी जीव ने पृथ्वीकाय आदि को शरीर रूप से ग्रहण करके छोड़ दिया अतः उन पाषाण आदि में चैतन्य बुद्धि का सर्वथा अभाव हो ही गया, "क्योंकि कोई भी ऐसा पुद्गल जगत में नहीं है जिसे इस जीव ने अनेकों बार भोगकर नहीं छोड़ा है" ऐसा वचन है। तथा मुक्तात्मा में मतिश्रुत आदि क्षयोपशम रूप चार ज्ञान का अभाव देखा भी जाता है उनकी अपेक्षा से बुद्धि का अभाव घटित है। अतः कर्मकलक रहित अकलंक भगवान ही सर्वज्ञ सिद्ध होते हैं।
तथा सत् स्वरूप आत्मा से कर्मों का पृथक्करण हो जाना ही अभाव है न कि अत्यन्त विनाश रूप अभाव, क्योंकि तुच्छाभाव रूप अभाव को हम नहीं मानते हैं।
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