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[ कारिका ५
३२६ ]
अष्टसहस्री विप्रकर्षिणामन्यदा देशादिविप्रकृष्टानां प्रतिपन्नाविनाभाविलिङ्गानामनुमितिरिति चेत् कथमेवं शश्वदप्रत्यक्षाया बुद्धे रनुमानं यत इदं शोभेत ? "ज्ञाते त्वर्थेनुमानादवगच्छति' बुद्धिम्' इति । अर्थापत्तेर्बुद्धिप्रतिपत्तेरदोष इति चेद् धर्मादिप्रतिपत्तिरपि तत एवास्तु । यथैव हि बहिरर्थपरिच्छित्त्यन्यथानुपपत्तेर्बुद्धिप्रति पत्तिस्तथा श्रेयः प्रत्यवायाद्यन्यथानुपपत्त्या धर्माधर्मादिप्रतिपत्तिरपि12 युक्ता भवितुम् । श्रेयःप्रत्यवायादेरन्यथा प्युपपत्तेः
मीमांसक-कदाचित् प्रत्यक्षगोचर पदार्थों में एवं कभी-कभी देशादि से परोक्ष पदार्थों (अग्नि ) में अनुमान का प्रयोग होता है, जिनका कि अविनाभावी हेतु पाया जाता है ।
'जैन-पूनः हमेशा ही परोक्षभूत बुद्धि को सिद्ध करने में अनुमान का प्रयोग कैसे हो सकेगा जिससे तुमने जो कहा है कि "पदार्थ का ज्ञान हो जाने पर अनुमान से बुद्धि को जानता है" यह कथन शोभित हो सके ?
मीमांसक-हमारे यहाँ अर्थापत्ति प्रमाण से बुद्धि का ज्ञान हो जाता है अतः कोई दोष नहीं है।
जैन-पुन: धर्मादिकों का ज्ञान भो उसी अर्थापत्ति प्रमाण से हो जावे क्या बाधा है ? जिस प्रकार "बाह्य पदार्थों के जानने की अन्यथानुपपत्ति होने से बुद्धि का ज्ञान होता है उसी प्रकार से सूख, दुःख की अन्यथानुपपत्ति होने से धर्म-अधर्म का ज्ञान भी हो सकता है अर्थात् मुझ में बुद्धि है क्योंकि बाह्य पदार्थों का ज्ञान पाया जाता है तथैव धर्म और अधर्म भी हैं क्योंकि उनका फल सुख और दुःख देखा जाता है।
मीमांसक-सुख, दुःख आदि की अन्यथा भी उपपत्ति पायी जाती है। इसलिये धर्म अधर्म में अर्थापत्ति काम नहीं कर सकती । अर्थात् धर्म करते हुये किसी को दुःखी एवं पाप करते हुये को भी सुखी देखा जाता है।
जैन-सुख-दुःखादि की उत्पत्ति में दृष्ट (प्रत्यक्ष) कारणों में व्यभिचार पाया जा सकता है; अतएव ही अदृष्ट रूप पुण्य-पाप कारणों का ज्ञान होता है । जैसे रूपादिक के ज्ञान में इंद्रियों की शक्ति का अनुमान लगाया जाता है अर्थात् मुझमें विशेष इन्द्रिय शक्ति विद्यमान है क्योंकि विशिष्ट 1 प्रत्यक्षगोचराणाम् । 2 पावकादीनाम्। 3 पर्वतादौ प्रवर्तमानानां पावकादीनां । (ब्या० प्र०) 4 परोक्षं जैमिनेनिमितिवचनात् । (ब्या०प्र०)5 वक्ष्यमाणम् । 6 ज्ञाततान्यथानुपपत्तेर्मयि ज्ञानमस्ति (ब्या० प्र०)7 मीमांसक: 8 कथमेवं शश्वदप्रत्यक्षाया बुद्धरनुमानं यत इदं शोभेत । ज्ञातेत्वर्थेऽनुमानादवगच्छति बुद्धिमिति अर्थापत्तेर्बुद्धिप्रतिपत्तेः । (ब्या० प्र०) 9 अर्थापत्तेः सकाशात् । केवलागम्यत्वं लप्स्यते पुण्यपापयोरिति व्याहन्यते प्रकृतमनुमेयत्वसाधनं च सिद्धं भवति । न चापत्तिरनुमानाद् अन्यवानुमानस्यैवार्थापत्तिरिति नामकरणादिति वक्ष्यमाणत्वात् । दि. प्र. । 10 मयि बुद्धिरस्ति, घटादिबहिरर्थज्ञानान्यथानुपपत्तेः। 11 आदिशब्देन स्वर्गो देवता च गृह्यते । तथा
वेदेतिहासादिज्ञानातिशयवानपि । न स्वर्गदेवतापूर्वप्रत्यक्षीकरणे क्षमः ।। इति मीमांसकेनोक्तत्वात् । दि. प्र. । - 12 धर्माधौं स्तः, श्रेयःप्रत्यवायाद्यन्यथानुपपत्तेः । श्रेयः सुखम् । प्रत्यवायो दुःखम् । 13 धर्माधर्म-योरभावेपि स्त्र्यादिदर्शनात् ।
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