Book Title: Ashtsahastri Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 423
________________ ३४० ] अष्टसहस्र [ नैयायिको ब्रूते योगजधर्मानुगृहीतेंद्रियाणि परमाण्वादीन् पश्यंति तस्य निराकरणं ] 'योगजधर्मानुगृही 'तमिन्द्रियं योगिनस्तैः साक्षात्सम्बध्यते इति चेत् 'कोयमिन्द्रियस्य योगजधर्मानुग्रहो नाम ? ' स्वविषये प्रवर्तमान' स्यातिशयाधानमिति चेत्तदसंभव एव परमाण्वादौ स्वयमिन्द्रियस्य प्रवर्तनाभावात् प्रवर्तने वा योगजधर्मानुग्रहस्य वैयर्थ्यात् । तत एवेन्द्रियस्य परमाण्वादिषु प्रवृत्तौ परस्पराश्रयप्रसङ्गः । सतीन्द्रियस्य योगजधर्मानुग्रहे" परमाण्वादिषु प्रवृत्तिः सत्यां च तस्यां योगजधर्मानुग्रह इति । 12 परमाण्वादिष्विन्द्रियस्य प्रवृत्तौ सहकारित्वं योगजधर्मानुग्रह इति चेन्न, स्वविषयातिक्रमेण 13 तस्य तत्र तदनुग्रहायोगात्, “अन्यथा कस्यचिदेकस्येन्द्रियस्य" सकलरसादिषु प्रवृत्तौ तदनुग्रहप्रसङ्गात्" । 17दृष्टविरोधान्नैवमिति चेत् " समानमन्यत्र" । यथैव हि चक्षुरादीनि प्रतिनियतरूपादिविष [ कारिका ५ नैयायिक - अपने अपने विषय में प्रवर्त्तमान इन्द्रियों में अतिशय को कर देना यही अनुग्रह है । मीमांसक - तब तो वह असभव ही है । परमाणु आदि में स्वयं इन्द्रियों की प्रवृत्ति नहीं पाई जाती है। यदि आप प्रवृत्ति मानेंगे तो योगज धर्म का अनुग्रह व्यर्थ ही हो जावेगा । पुनः आप कहें कि योग धर्म के अनुग्रह से ही इन्द्रियों की परमाणु आदि में प्रवृत्ति हो जाती है तो परस्पराक्षय दोष आ जावेगा । इन्द्रियों के योगज धर्म का अनुग्रह होने पर परमाणु आदि में प्रवृत्ति होगी और उस प्रवृत्ति के परमाणु आदि में प्रवृत्ति होने पर योगज धर्म का अनुग्रह होगा । नैयायिक - परमाणु आदि को जब इन्द्रियाँ ग्रहण करती हैं तब योगज धर्म का अनुग्रह सहकारी कारण होता है । मीमांसक - यह कथन ठीक नहीं है । अपने विषयों का उल्लंघन करके इन्द्रियों की परमाणु आदि में प्रवृत्ति होने में योगजधर्म का अनुग्रह सहकारी नहीं हो सकता है । अन्यथा कोई एक ही इंद्रिय सम्पूर्ण रूप, रस, गंध आदि विषयों को ग्रहण करने में प्रवृत्त हो जावेगी और उसमें भी योगजधर्मानुग्रह ही सहकारी मानना पड़ेगा । नैयायिक - एक इन्द्रिय दूसरी इन्द्रिय के विषय को ग्रहण करे इसमें तो प्रत्यक्ष से ही विरोध है Jain Education International 1 नैयायिकः । 2 ध्यानोद्भूतधर्मेण । 3 उपकृतं । ( ब्या० प्र०) 4 ईश्वरस्य । (ब्या० प्र० ) 5 मीमांसकः पृच्छति । 6 परमाण्वादी । (ब्या० प्र० ) 7 इन्द्रियस्य । 8 स्पष्टतापादनम् । 9 इंद्रियस्य परमाण्वादी प्रवृत्यर्थं हि योगजधर्मोऽभ्युपगतः । तदिन्द्रियं यदि स्वयमेव तत्र प्रवर्तते किमनेन योगजधर्मानुग्रहणेनेति भावः । दि. प्र. । 10 परस्पराश्रयं दर्शयति । 11 अङ्गीक्रियमाणे । 12 योगो वदति । ( व्या० प्र० ) 13 रूपादिविषयोल्लङ्घनेन । 14 अन्यथा इंद्रियं योगजधर्मानुग्रहात् स्वविषयमतिक्रम्य प्रवर्तते कस्यचित् पुंसः एकस्य चक्षुरादींद्रियस्य रसादिषु पंचसु विषयेषु प्रवृत्तिः स्यात् । तस्यां सत्यां योगजधर्मोपकारप्रसंगो घटते । दि. प्र । 15 स्पर्शनादे: 16 योगजधर्मानुग्रह प्रसङ्गात् । 17 नैयायिकः । प्रत्यक्षविरोधात् । 18 मीमांसकः । 19 परमाण्वादी प्रत्यक्षविरोधस्तुल्यः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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