Book Title: Ashtsahastri Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 433
________________ ३५० ] अष्टसहस्री [ कारिका ५. भावार्थ-मीमांसक ने जैसे-तैसे यहाँ तक तो मंजूर कर लिया कि सूक्ष्मादि पदार्थ किसी न किसी के प्रत्यक्ष अवश्य हैं और वह प्रत्यक्ष अतींद्रिय प्रत्यक्ष है। इस बात को स्वीकार कर लेने के बाद भी उसे चैन नहीं पड़ी और वह प्रश्न करने में पुनः आगे बढ़कर कहता है कि अच्छा आप जैन ! यह तो बताओ कि यह अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष आप अहंत के मानते हैं या बुद्ध कपिल आदि के या इन दोनों से रहित किसी सामान्य आत्मा के ? ____ यदि प्रथम पक्ष लेवो तो बनता नहीं क्योंकि कोई भी आत्मा अहंत रूप से सिद्ध ही नहीं है और अप्रसिद्ध को पक्ष बनाया ही नहीं जा सकेगा। द्वितीय पक्ष में बुद्ध, कपिल आदि को अतींद्रियदर्शी मानना आपको इष्ट नहीं है। तृतीय पक्ष में इन दोनों को छोड़कर और आत्मा है कौन जिसे आप सर्वज्ञ सिद्ध कर सकें ? अतः आप अपने अहंत को ही सर्वज्ञ सिद्ध नहीं कर सकते हैं। इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि ये तीन प्रकार के दूषण तो सर्वत्र ही दिये जा सकते हैं । आप मीमांसकों ने शब्द को नित्य सिद्ध किया है। हम प्रश्न कर सकते हैं कि आप सर्वगत शब्दों को नित्य सिद्ध करते हैं या असर्वगत शब्दों को या इन दोनों से रहित सामान्य शब्दों को? एवं शब्दों को सर्वगत सिद्ध करते हुए आप अमूर्तिक शब्दों को सर्वगत सिद्ध करते हैं या मूर्तिक शब्दों को या इन दोनों से रहित किन्हीं शब्दों को ? ___ इसी प्रकार से आपकी सभी मान्यताओं में हम इन्हीं विकल्पों को उठाकर दूषण देते जावेंगे। तब मीमांसक घबड़ाकर बोल पड़ा कि भाई ! हम विशेष की विवक्षा न करके सामान्य मात्र शब्दों को ही नित्य, सर्वगत और अमूर्तिक सिद्ध करते हैं अतः हमारे यहाँ ये कोई दोष नहीं आते हैं । जैनाचार्य ने कहा कि भाई ! फिर मुझ पर ही आपको इतना क्या द्वेष है कि जिससे आप इस प्रकार से कुप्रश्नों की भरमार करते ही जा रहे हैं। हम भी तो विशेष रूप से अहंत अनहंत की विवक्षा न करके सामान्य मात्र से ही किसी भी पुरुष को सर्वज्ञ सिद्ध कर रहे हैं । हमें किसी से भी द्वेष नहीं है जो कर्म पर्वत को भेदन करने वाला दोष-आवरण से रहित निर्दोष महापुरुष है वह कोई भी क्यों न हो बस ! हम उसे ही सर्वज्ञ मान लेते हैं। इसलिये 'अनुमेयत्व' हेतु के द्वारा किसी न किसी आत्मा के सम्पूर्ण सूक्ष्मादि पदार्थों का साक्षात्कार होना सिद्ध ही हो जाता है । अब अधिक कथन से तो केवल पिष्टपेषण ही होगा ऐसा समझना चाहिये। उत्थानिका-इस प्रकार किसी के कर्मभूभृत् भेदित्व के समान विश्व-तत्त्वों का साक्षात्कारित्व भी हो जावे क्योंकि सुनिश्चित रूप से असम्भव है बाधक प्रमाण जिसमें ऐसे प्रमाण का सद्भाव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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