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दोष-आवरण के अभाव पूर्वक सर्वज्ञसिद्धि ] प्रथम परिच्छेद
[ ३४५ नैयायिक सन्निकर्ष को प्रमाण मानते हैं उनका कहना है कि पहले चक्षु इन्द्रिय का घट से सम्बन्ध हुआ उसका नाम है, "संयोग" पुनः उसके रूप से सम्बन्ध हुआ है उसका नाम है “संयुक्त समवाय," इसके बाद इन्द्रिय ने जो उसके रूपत्व को जाना उसका नाम 'संयुक्तसमवेतसमवाय" है।
मीमांसक कहता है कि जब इन्द्रियों का परमाणु आदि पदार्थों के साथ सम्बन्ध ही नहीं होता है तब संयोग, संयुक्त समवाय आदि सन्निकर्ष भी कैसे बनेंगे ? पुनरपि मीमांसक उस नैयायिक को समझा रहा है कि भाई ! यदि आप कहें कि मन पर योगज धर्म का अनुग्रह होता है और मन ही संपूर्ण अतींद्रिय पदार्थों को जान लेता है तो यह बात भी घटित नहीं है क्योंकि मन एक साथ पंचेद्रियों के विषयों को भी नहीं समझ सकता है तब सूक्ष्मादि पदार्थों को जानने की बात बहुत ही दूर है। हां! जैनों ने अवश्य मानस मतिज्ञान के द्वारा मूर्तिक अमूर्तिक छहों द्रव्यों का ज्ञान और उनकी कतिपय पर्यायों का ज्ञान माना है, किन्तु फिर भी मन से संपूर्ण सूक्ष्मादि पदार्थों का ज्ञान नहीं माना है।
यदि मूल का दूसरा विकल्प लिया जाय कि अतींद्रिय प्रत्यक्ष से सर्वज्ञ सम्पूर्ण पदार्थों को जानते हैं तो यह बात भी नहीं बन सकती क्योंकि अतींद्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान असिद्ध ही है। पहले उसे ही सिद्ध करने में आपको बहुत शक्ति लगानी पड़ेगी। इस प्रकार से मीमांसक से आमना-सामना करके अपनी शंका का समाधान करने का प्रयत्न करते हुये अपनी ही बात को पुष्ट कर दिया है।
___ अब जैनाचार्य उत्तर देते हुये कहते हैं कि भाई ! यदि हम इन्द्रिय प्रत्यक्ष से किसी के सूक्ष्मादि पदार्थों का प्रत्यक्ष ज्ञान होना माने तो ये सब दोष हमारे ऊपर आ जावेंगे किन्तु हम तो इन्द्रिय प्रत्यक्ष से संपूर्ण पदार्थों का प्रत्यक्षीकरण नहीं मानते हैं और न आपके द्वारा कल्पित अतींद्रिय प्रत्यक्ष से ही सूक्ष्मादि पदार्थों का साक्षात्कार मानते हैं । इसलिये आप मीमांसक हमारे ऊपर दोषारोपण नहीं कर सकते हैं प्रत्युत हम जैन सामान्य प्रत्यक्ष के द्वारा ही सम्पूर्ण सूक्ष्मादि पदार्थों को प्रत्यक्ष जानना मानते हैं।
वह सामान्य प्रत्यक्ष इन्द्रिय और मन आदि की अपेक्षा से रहित है अतः परमार्थ प्रत्यक्ष है । आत्मा में केवलज्ञानावरण कर्म के क्षय से उत्पन्न हुआ आत्मा का ही निजी स्वभाव है । उसे ही अतींद्रिय प्रत्यक्ष भी कहते हैं।
"सामग्रीविशेषविश्लेषिताखिलावरणमतींद्रियमशेषतो मुख्यं" इस सूत्र के अनुसार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की सामग्री विशेष से अखिल आवरण के नष्ट हो जाने पर वह ज्ञान उत्पन्न होता है अतः वह ज्ञान अतींद्रिय है और मुख्य प्रत्यक्ष है, शेष, मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्ययज्ञान, क्षायोपशमिक ज्ञान हैं ये मुख्य प्रत्यक्ष नहीं हैं । आदि का मतिज्ञान न्याय की भाषा में, सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है और सैद्धांतिक गन्थों के आधार से इन्द्रिय और मन की सहायता से उत्पन्न होने से परोक्ष कहलाता है। अवधिज्ञान और मनः-पर्ययज्ञान एक देश प्रत्यक्ष हैं और ये क्षायोपशमिक होते हुए भी अतींद्रिय हैं। - ये दोनों ज्ञान भी इन्द्रिय और मन की सहायता से रहित हैं इसलिये ये दोनों ज्ञान सूक्ष्मादि पदार्थों को विषय करने वाले हैं, परमाणु तक सूक्ष्म वस्तु को जानने की सामर्थ्य रखते हैं, कई भवों की और असंख्यात द्वीप समुद्रों तक की भी बातें स्पष्ट जान लेते हैं। ये भी स्वात्मा से ही उत्पन्न होने से पूर्ण
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