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दोष-आवरण के अभाव पूर्वक सर्वज्ञसिद्धि ] प्रथम परिच्छेद
[ ३४७ दिसाक्षात्कारी, पुरुषत्वादेः', रथ्यापुरुषवत् । विवादापन्नः पुरुषः सूक्ष्मादिसाक्षात्कारित्वेन संशयित एव विप्रकृष्टस्वभावत्वात् पिशाचादिवत् । इति सूक्ष्मादिसाक्षात्करणस्य प्रतिषेधने संशीतौ वा 'तावदिदं विकल्पजालं समानं सिद्धमेव । स हि तत्र प्रतिषेधं संशयं वा साधयन् किमर्हतः साधयेदनर्हतः सामान्यात्मनो वा ? अर्हतश्चेदप्रसिद्धविशेषणः पक्षो व्याप्तिश्च न सिध्येद्, 'दृष्टान्तस्य साध्यशून्यतानुषङ्गात् । अनर्हतश्चेत्स एव दोषो बुद्धादेः परस्या सिद्धरनिष्टानुषङ्गश्च', अर्हतस्तत्प्रत्यक्ष त्वविधाननिश्चयात् । कः पुनः सामान्यात्मा तदुभयव्यतिरेकेण यस्य विवक्षितार्थ प्रत्यक्षत्वप्रतिषेधसंशयौ साध्येते ? इति ।।
भी समान हैं न कि केवल सूक्ष्मादि पदार्थों का साक्षात् करने वाले सर्वज्ञ का प्रतिषेध करने में अथवा उनमें संशय करने में । इसलिए आप मीमांसक अनुमान मुद्रा का भेदन कर देते हैं ।*
कोई भी सूक्ष्मादि पदार्थों का साक्षात्कारी नहीं है क्योंकि पुरुष है उन्मत्त पुरुष के समान । "विवाद में आया हुआ पुरुष सूक्ष्मादि पदार्थों को साक्षात् करने में संदिग्ध ही है क्योंकि परोक्ष स्वभाव वाला है जैसे कि पिशाचादि ।" इस प्रकार सूक्ष्मादि को साक्षात् करने वाले सर्वज्ञ का निषेध करने में अथवा संदेह करने में आप मीमांसक के यहाँ ये विकल्प जाल समान ही सिद्ध होंगे । तथाहि
आप मीमांसक-सर्वज्ञ का निषेध करते हुये अथवा सर्वज्ञ में संशय करते हुये इन दोनों बातों को अहंत में सिद्ध करते हैं या अनहत में अथवा सामान्यात्मा में? यदि आप पहला विकल्प मानें कि हम अहंत में सर्वज्ञत्व का प्रतिषेध करते हैं तब तो आपका पक्ष असिद्ध विशेषण वाला है एवं उसकी व्याप्ति भी सिद्ध नहीं होती तथा दृष्टांत भी साध्यविकल है। यदि अहंत से रहित बुद्ध आदि में सर्वज्ञत्व का निषेध करते हैं तब तो आप मीमांसकों के यहाँ कपिल बुद्ध आदि की असिद्धि ही नहीं मानी गई है अतः अनिष्ट का प्रसंग आ जाता है ।
___ एवं अहंत में तो सूक्ष्मादि के प्रत्यक्ष का विधान ही निश्चत किया है और पुनः इन दोनों को छोड़कर सामान्यात्मा है कौन कि जिसके विवक्षित सूक्ष्मादि पदार्थों के प्रत्यक्षत्व का आप निषेध सिद्ध करें या संदेह सिद्ध करें ?, [ मीमांसक जिन प्रश्नोत्तरों के द्वारा सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध करना चाहते हैं जैनाचार्य उन्हीं
प्रश्नोत्तरों से उसी के द्वारा मान्य नित्य शब्द का खंडन कर देते हैं। 1
1 पुरुषत्वात् रथ्या इति पा.। दि. प्र.। 2 विवादापन्नस्य सर्व ज्ञस्य। 3 पूर्वोक्तप्रकारेण। 4 तव मीमांसकस्य । 5 मीमांसकः। 6 अर्हन् प्रसिद्धो न वर्तते । (ब्या० प्र०) 7 सव्याप्तिकं दृष्टांतवचनमुदाहरणमीदृग् विधलक्षणाभावात् विशेषरूपेऽर्हत्यभावे सूक्ष्मादिसाक्षात्कारित्वस्य रथ्यापुरुषे सद्भावो भविष्यति । (ब्या० प्र०) 8 रध्यापुरुषस्य । 9 मीमांसकस्य। 10 मीमांसकस्य । (ब्या० प्र०) 11 परिशेषन्यायेन। (ब्या० प्र०) 12 सूक्ष्माद्यर्थानाम् ।
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