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सर्वज्ञसिद्धि ]
प्रथम परिच्छेद
[ ३३१
प्रत्यक्षमेकमेव प्रमाणमिति व्यवतिष्ठते । ततोनुमानमिच्छता याज्ञिकेनेव 'लोकायति केनापि प्रसिद्धाविनाभावनियम निश्चयलक्षणादनुमेयत्व हेतोः सूक्ष्माद्यर्थानां कस्यचित्प्रत्यक्षत्वसिद्धिरेषितव्या ।
[ मीमांसको ब्रूते न कश्चित् सूक्ष्माद्यर्थान् प्रत्यक्षीकतु क्षमः प्रमेयत्वादित्यादिस्तस्य निराकरणं कुर्वन्ति जैनाचार्या : ] ±स्यान्मतं, बाधितविषयोयं हेतुरनुमानेन पक्षस्य बाधनात् । तथा हि । न कश्चित् सूक्ष्माद्यर्थसाक्षात्कारी, ‘प्रमेयत्वात्सत्त्वाद्वस्तुत्वादस्मदादिवत् । न चेदं साधनमसिद्धं व्यभिचारि वा, प्रत्यक्षाद्यविसंवादित्वात् । तदुक्तं
""प्रत्यक्षाद्यविसंवादि प्रमेयत्वादि यस्य तु । सद्भाववारणे शक्तं को तु तं कल्पयिष्यति ।"
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चार्वाक - " प्रत्यक्ष ही एक प्रमाण है क्योंकि वह अविसंवादी है । अनुमानादि अप्रमाण हैं क्योंकि वे विसंवादी हैं ।"
जैन - इस प्रकार से कहते हुए आप चार्वाक के यहाँ अनुमान तो बलपूर्वक आ ही गया है इसलिए "प्रत्यक्ष ही एक प्रमाण है" ऐसा कथन व्यवस्थित नहीं होता है । ( अर्थात् " प्रत्यक्ष ही प्रमाण है" यह प्रतिज्ञावाक्य है "क्योंकि अविसवादी है" यह हेतुवाक्य है एवं अनुमान के ही प्रतिज्ञा और हेतु ये दो अवयव पाये जाते हैं इस प्रकार से प्रत्यक्ष रूप एक प्रमाण को सिद्ध करते हुए अनुमान वाक्य के द्वारा) अनुमान प्रमाण को बेमालूम आप स्वीकार कर ही लेते हैं इसलिये अनुमान को स्वीकार करने वाले याज्ञिक (भाट्ट) के समान चार्वाक को भी "प्रसिद्ध अविनाभाव रूप नियम निश्चय लक्षण वाले अनुमेयत्व हेतु से सूक्ष्मादि पदार्थों को किसी के प्रत्यक्षता सिद्ध है" इस प्रकार स्वीकार कर लेना चाहिये ।
[ मीमांसक कहता है कि कोई भी व्यक्ति सूक्ष्मादि पदार्थों को साक्षात् करने वाला नहीं है. क्योंकि प्रमेय है इत्यादि । जैनाचार्य इस कथन का निराकरण करते हैं । ]
मीमांसक - यह हेतु बाधित विषय वाला है क्योंकि आपके पक्ष में अनुमान से बाधा आती है । तथाहि - "कोई भी सूक्ष्मादि पदार्थों का साक्षात्कार करने वाला नहीं है क्योंकि वह प्रमेयरूप है, अस्तित्व रूप है अथवा वस्तु रूप है जैसे हम और आप लोग सूक्ष्मादि पदार्थों के साक्षात् करने वाले नहीं हैं।" हमारा यह हेतु प्रत्यक्षादि से अविसंवादी इसलिए असिद्ध या व्यभिचारी भी नहीं है । अर्थात् प्रत्यक्ष प्रमाण से सूक्ष्मादि पदार्थ को साक्षात् करने वाली कोई भी आत्मा सिद्ध नहीं होती है । कहा भी है
श्लोकार्थ - प्रत्यक्ष आदि से अविसंवादी प्रमेयत्व आदि हेतु जिस सर्वज्ञ के अस्तित्व को निषेध करने में समर्थ पाये जाते हैं फिर कौन ऐसा विचारशील व्यक्ति है जो कि सर्वज्ञ के सद्भाव
1 चार्वाकेन । 2 मीमांसकस्य । 3 मीमांसकः । दि. प्र. 4 पदार्थत्वात् । ( ब्या० प्र० ) 5 प्रागुक्तम् । 6 यतो न साधयति सूक्ष्माद्यर्थ साक्षात्कारिणां प्रत्यक्षम् । 7 सूक्ष्माद्यर्थ साक्षात्कारिणं पुरुषं न साधयति प्रत्यक्षंयतः । ( ब्या० प्र० प्र० ) 8 सर्वज्ञस्य । 9 जैनादिः । ( ब्या० प्र० ) 10 सर्वज्ञसद्भावम् ।
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