________________
२६२ ] अष्टसहस्री
[ कारिका ३[ मीमांसको ब्रूते-अस्तित्वग्राहकपंचप्रमाणैः सर्वज्ञो न ज्ञायते अतोऽभावप्रमाणेन सर्वज्ञस्याभावोऽस्ति
किन्तु जैनाचार्याः अभावप्रमाणस्याभावं कृत्वा सर्वज्ञं साधयन्ति । ] सदुपलम्भकप्रमाणपञ्चकनिवृत्तिलक्षणं ज्ञापकानुपलभ्भन सर्वज्ञस्य बाधकमिति चेन्न, 'तस्य 'स्वसम्बन्धिनः परचेतोवृत्तिविशेषादिना' व्यभिचारात्, सर्वसम्बन्धिनोऽसिद्धत्वात् । तदुक्तं तत्त्वार्थश्लोकवात्तिके ।
'स्वसम्बन्धि यदीदं स्याद्वयभिचारि पयोनिधेः । अम्भःकुम्भादिसंख्याने सद्भिरज्ञायमानकै:10 ॥१॥ सर्वसम्बन्धि तद्बोद्ध, किञ्चिद्बोधैर्न11 शक्यते । सर्वबोधोस्ति चेत्कश्चित्तद्बोद्धा किं निषिध्यते ॥२॥
[ मीमांसक कहता है कि अस्तित्व को ग्रहण करने वाले पांचों ही प्रमाणों से सर्वज्ञ नहीं जाना जाता है अतएव
अभाव प्रमाण के द्वारा सर्वज्ञ का अभाव करके सर्वज्ञ का अस्तित्व सिद्ध करते हैं। ]
मीमांसक-सत्ता को ग्रहण करने वाले पांच प्रमाणों का अभाव लक्षण, ज्ञापकानुपलब्धि रूप अभाव प्रमाण सर्वज्ञ को बाधित करने वाला है।
जैन ऐसा नहीं कह सकते हैं क्योंकि हम आपसे ऐसा प्रश्न कर सकते हैं कि वह अभाव स्वसंबंधी है या सर्व सम्बन्धी ? स्वसंबंधी मानों तो परिचित के व्यापार विशेष आदि से व्यभिचार आता है और सर्व सम्बन्धी कहो तो असिद्ध है । उसी को तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक में कहा है।
"यदि अभाव प्रमाण स्वसंबंधी है तो अल्पज्ञों के द्वारा समुद्र के विद्यमान जलकंभादि की संख्या से व्यभिचारी है । अर्थात् समुद्र के पानी का घड़े आदि से मापने की संख्या का परिमाण तो हो सकता है किन्तु आपको तो यह ज्ञान नहीं है कि पूरे समुद्र में कितने घड़े पानी है अतः समुद्र के पानी में घड़ों की संख्या का परिमाण है किंतु आपके पास उनका ज्ञापक प्रमाण नहीं है इस कारण आपका हेतु व्यभिचारी है ॥१॥
यदि सर्व संबंधि अभाव कहो तो अल्पज्ञों के द्वारा उसे जानना शक्य नहीं है यदि सभी को जानने वाला कोई ज्ञाता है तो वही सर्वज्ञ है पुनः आप उस सर्वज्ञ का निषेध क्यों करते हैं ? अर्थात् यदि आप कहें कि सभी संसारी जीवों के पास सर्वज्ञ को जानने वाला कोई प्रमाण नहीं है तब तो अल्पज्ञ मनुष्य यह बात कैसे जान सकेगा कि जैन, नैयायिक, वैशेषिक आदि किसी के पास सर्वज्ञ को
1 सदुपलम्भकं सग्राहकम् । 2 अभावप्रमाणं । (ब्या० प्र०) 3 विद्यमानदर्शकप्रत्यक्षादिप्रमाणपञ्चकाभावस्वरूपमभावप्रमाणम् । 4 तदुपलंभनं स्वसंबंधि-सर्वसंबंधि वा इति विकल्पद्वयं कृत्वा दूषयति । स्वसंबंधि-स्वस्याभावप्रमाणवादिनः संबंधियज्ज्ञापकपंचकं (प्रमाणं) तस्यानुपलंभनं तस्य । सर्वसम्बन्धि-सर्वजनस्य । (ब्या० प्र०) 5 सिद्धान्ती तदनुपलम्भनं स्वसम्बन्धि परसम्बन्धि वेति विकल्प्य क्रमेण दूषयति । स्वस्याभावप्रमाणवादिनः सम्बन्धि स्वसम्बन्धि । 6 परचित्तव्यापारविशेषादिना व्यभिचारसम्भवात् । 7 तदा । (ब्या० प्र०) 8 तदेति शेषः । १ विद्यमानः। 10 किञ्चिज्ज्ञेन। 11 अतीन्द्रियत्वात् ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org :