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सर्वज्ञसिद्धि ] प्रथम परिच्छेद
[ २६१ तत्त्वार्थे प्ररूपणात् । समर्थयिष्यते चायं कार्यकारणभावो दोषावरणयोः “कामादिप्रभवश्चित्रः कर्मबन्धानुरूपतः' इत्यत्र ।
[ बौद्धो दोषानेव संसारस्य कारणं मन्यते किंतु जैनाचार्या उभयो एव कारणे इति कथयति ] 'अथ दोष एवाविद्या तृष्णा लक्षणश्चेत सोनादितद्वासनोद्भूतः संसारहेतुर्नावरणं पौद्ग
तत्प्रदोष-ज्ञान दर्शन में प्रद्वेष भाव, निन्हव-ज्ञान दर्शन को ढकना, मात्सर्य-निन्दा और तिरस्कार, अन्तराय-ज्ञान दर्शन में विघ्न करना, आसादना-शास्त्रादि की विराधना करना, उपघात-उपाध्याय आदि को दोष लगाना या पीड़ा देना आदि कारणों से जीव के ज्ञानावरण, दर्शनावरण कर्म का आस्रव होता है ।
केवली, शास्त्र, संघ, धर्म एवं देव को झूठा दोष लगाने से दर्शन मोहनीय कर्म का आश्रव होता है। कषायों के उदय की तीव्रता से कलुषित परिणाम के होने से चारित्र मोहनीय कर्म का आश्रव होता है और दान लाभ आदि में विघ्न करने से दानादि अंतराय कर्म का आश्रव होता है। इस प्रकार से "तत्त्वार्थ सूत्र" महाशास्त्र में प्ररूपण किया है और आगे इसी मीमांसा ग्रन्थ में "कामादि प्रभवश्चित्र: कर्मबंधानुरूपतः" इत्यादि कारिका नं०६६ के अर्थ में दोष और आवरण में कार्यकारण भाव का समर्थन करेंगे।
भावार्थ-यहाँ यह प्रश्न सहज ही हो सकता है कि जब बीजांकुर न्याय के समान अनादि काल से दोष-आवरण का परस्पर कार्यकारण भाव निश्चित है तब इनका अभाव भी कैसे हो सकेगा? इसका समाधान यही है कि जब यह जीव कालादि लब्धि को प्राप्त करके सम्यक्त्व को ग्रहण कर लेता है एवं रागद्वेष को दूर करने के लिए सम्यक् चारित्र का आश्रय ले लेता है तब व्यवहार निश्चय रूप रत्नत्रय के बल से आने वाले कर्मों के रुक जाने से संवर हो जाता है और बंधे हुये कर्मों की निर्जरा होती चली जाती है तब धीरे-धीरे मोहनीय कर्म के नाश से राग, द्वेष, मोह का नाश, ज्ञानावरण आदि के नाश से अनादि-कालीन भावों का अभाव हो जाता है। जैसे कि बीज को जला देने से उससे अंकुर परम्परा समाप्त हो जाने से उस बीज का अंत हो जाता है तथैव इन दोष-आवरणों का अभाव भी हो सकता है कोई बाधा नहीं आती है। [ बौद्ध दोषों को ही संसार का कारण मानता है आवरण को नहीं, किन्तु जैनाचार्यों
ने दोनों को ही संसार का कारण माना है। ] बौद्ध-दोष ही अविद्या-मिथ्याज्ञान एवं तृष्णा भोगों की अभिलाषा लक्षण वाले हैं जो कि चित्तक्षणरूप आत्मा में अनादि काल की वासना से उत्पन्न होते हैं वे ही संसार के लिये कारण हैं, न कि आवरण रूप पौद्गलिक कर्म, क्योंकि मूर्तिमान् कर्म के द्वारा अमूर्तिक आत्मा पर आवरण नहीं हो सकता है।
1 सौगताशङ्का। 2 अविद्या मिथ्याज्ञानम् । 3 भोगाभिलाषस्तृष्णा। 4 चित्तक्षणस्य आत्मन इत्यर्थः ।
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