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अष्टसहस्त्री
[ कारिका ४
२६४ ] साध्यापरिज्ञानात् । प्रध्वंसाभावो हि दोषावरणयोः साध्यो न पुनरत्यन्ताभावः, 'तस्यानिष्टत्वात्, सदात्मनो मुक्तिप्रसङ्गात् । नापीतरेतराभावः, तस्य प्रसिद्धत्वात्, दोषावरणयोरनात्मत्वादात्मनश्चादोषावरणस्वभावत्वात् । प्रागभावोपि न साध्यस्तत' एव, प्रागविद्यमानस्य दोषावरणस्य स्वकारणादात्मनि प्रादुर्भावाभ्युपगमात् । न च लोष्टादौ दोषावरणयोः प्रध्वंसाभावः संभवति, तस्य भूत्वा भवनलक्षणत्वात् तयोस्तत्रात्यन्तमभावात् । तन्न सिद्धसाध्यता। [ शंकाकारो बुद्धस्तरतमतां दृष्ट्वा अतिशायनहेतुमनैकांतिकं मन्यते किंतु जैनाचार्याः क्वचित् लोष्टादौ
बुद्धरपि अभावं स्वीकृत्य हेतुमनेकांतिकं न मन्यते ] 11नन्वेवं, दोषावरणयोर्हानेरतिशायनान्निश्शेषतायां साध्यायां बुद्धरपि। किन्न परिक्षयः
उत्तर-आप बौद्ध का यह कहना असमीक्षित है-ठीक नहीं है उसने हमारे साध्य को समझा ही नहीं है । क्योंकि दोष और आवरण का प्रध्वंसाभाव रूप अभाव (हानि) ही साध्य है न कि अत्यंताभाव रूप अभाव, क्योंकि अत्यंताभाव रूप अभाव यहाँ साध्य में हमें इष्ट नहीं है । यदि जीव में दोष और आवरण का अत्यन्ताभाव मानेंगे तो नित्य ही संसार अवस्था में भी जीव के मुक्ति का प्रसंग आ जावेगा। तथा जीव में दोष और आवरण का इतरेतराभाव भी इष्ट नहीं है। वह इतरेतराभाव तो आत्मा में प्रसिद्ध ही है क्योंकि आत्मा और दोष-आवरण एक दूसरे रूप नहीं हो सकते हैं उनकी परस्पर विभिन्नता प्रसिद्ध है।
दोष और आवरण आत्मस्वरूप नहीं है और न आत्मा ही दोष, आवरण स्वभाव वाली है। तथा प्रागभाव भी यहाँ साध्य नहीं है क्योंकि वह भी प्रसिद्ध ही है। प्राक् (पहले) अविद्यमान रूप दोष आवरणों की अपने कारणों से आत्मा में उत्पत्ति स्वीकार की गई है यह कथन पर्यायाथिक नय को अपेक्षा से है।
मिट्टी के ढेले आदि में दोष, आवरण का प्रध्वंसाभाव ही नहीं है । प्रध्वंसाभाव तो "भूत्वाभवनलक्षणत्वात्" घट होकर कपाल होने रूप है। उस मिट्टी के ढेले आदि में दोष आवरण का अत्यन्त ही अभाव है अतः प्रध्वंसाभाव रूप हानि को साध्य करने में सिद्ध साध्यता दोष नहीं है।
1 इष्टमबाधितमसिद्धं साध्यमिति वचनात् । (ब्या० प्र०) 2 अनिष्टस्य साध्यत्वाभावात् । 3 कुतः ? यतः । 4 आत्मा दोषावरणं न तच्चात्मा नेति इतरेतराभावः। 5 इतरेतराभावस्यात्मनि कर्माद्यपेक्षया प्रसिद्धत्वात् । 6 कारणसंपातात्पूर्वमभावः प्रागभाव इति लक्षणं । (ब्या० प्र०) 7 प्रसिद्धत्वादेव । 8 प्रसिद्धत्वे हेतुमाह । १ घटो भूत्वा कपालभवनमेव प्रध्वंसाभावः। 10 लोष्टादावत्यन्ताभावेन वर्तनात् । 11 मीमांसकः । (ब्या० प्र०) 12 बुद्धरतिशयोऽस्ति । (ब्या० प्र०)
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