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अष्टसहस्री
[ कारिका ४
प्रसिद्धे च सर्वस्मिन्नात्मनि ज्ञानादिगुणस्वभावत्वे दोषस्वभावत्वासिद्धेः सिद्धं दोषस्य 'कादाचित्कत्वमागन्तुकत्वं साधयति । ततः स एव परिक्षयी स्वनिर्ह्रासनिमित्तविवर्द्धनवशादिति सुस्पष्टमाभाति, दोषनिहसिनिमित्तस्य सम्यग्दर्शनादेर्विशेषेण वर्द्धनप्रसाधनात् ।
लिये कृष्यमाणत्व आदि गुण किसी न किसी जीव में वृद्धिंगत होते हुये दिख रहे हैं। वर्तमान में यहाँ नहीं, किंतु विदेहक्षेत्र में तो देखा ही जाता है । अथवा यहाँ भी चतुर्थकाल में किसी न किसी जीव में इन रत्नत्रय गुणों की पूर्ण अवस्था हो सकती है । इसी से यह निश्चित किया जाता है कि जो जिसका स्वभाव होता है वह कभी भी नष्ट नहीं होता है । अनादिकाल से लेकर अनंतकाल तक पाया जाता है अतएव जीव के भी ज्ञानादि स्वभाव हैं यद्यपि वे अनादिकाल से कर्मोदय के कारण विभाव - अज्ञानादि रूप हो रहे हैं फिर भी सम्यक्त्व आदि गुणों से इनका अभाव होकर अनंतानंत काल तक ये ज्ञानादि स्वभाव जीव के साथ रहते हैं । अतः ये गुण जीव के स्वभाव हैं एवं दोष विभाव रूप हैं यह बात सिद्ध हो जाती है ।
किसी आत्मा में चैतन्य आदि गुण स्वभाव रूप मुक्ति अवस्था की प्रसिद्धि हो जाने पर अभव्य जीव में भी ज्ञानादिगुण स्वभाव का निर्णय हो जाता है क्योंकि जीवत्व स्वभाव की अन्यथानुपपत्ति पाई जाती है । अर्थात् अभव्य जीव का स्वभाव ज्ञानादि गुण हैं न कि दोषादि, किन्तु कर्म के निमित्त से ज्ञानादि गुण विभाव रूप परिणमन कर रहे हैं। अभव्य जीव में शक्ति रूप से गुणों के होने पर भी उनकी व्यक्ति नहीं हो सकती है और भव्यों को सम्यग्दर्शन आदि निमित्त के मिलने पर उनकी व्यक्ति हो सकती है यही अंतर भव्य और अभव्य जीवों में है ।
विशेषार्थ — जैनाचार्यों ने अन्यथानुपपत्ति हेतु से जीव का ज्ञानादि गुण स्वभाव सिद्ध कर दिया है । एवं इस बात को भी बतलाया है कि अभव्य का भी ज्ञानादि गुण ही स्वभाव है न कि दोष । अंतर इतना ही है कि अभव्य में कर्मों का नाश करके गुणस्वभाव को प्रकट करने की शक्ति नहीं है । इसी विषय में श्रीमद्भट्टाकलंकदेव ने राजवार्तिक की ८ वीं अध्याय में सिद्ध किया है यथा
प्रश्न यह होता है कि मतिज्ञानादि पांचों ज्ञान विद्यमान रूप हैं पुनः उन पर आवरण आता है या अविद्यमान रूप हैं उन पर आवरण आता है ? इस पर उत्तर यह है कि
"न कुटीभूतानि मत्यादीनि कानचित् संति येषामावरणात् मत्याद्यावरणानां आवरणत्वं भवेत् किंतु मत्याद्यावरणसन्निधाने आत्मा मत्यादिज्ञानपर्यायैर्नोत्पद्यते इत्यतो मत्याद्यावरणानां आवरणत्वं ।” अर्थात् कोई भी मति आदि ज्ञान प्रत्यक्षीभूत-पुंज रूप से विद्यमान नहीं हैं कि जिनके आवरण से मति आदि आवरणों में आवरणत्व हो सके किंतु मति आदि आवरण के सन्निकट होने से आत्मा मति श्रुत आदि पर्यायों से उत्पन्न नहीं होता है अतः मति आदि आवरणों में आवरणपना होता है ।
1 साधनम् । 2 दोषस्य । ( ब्या० प्र० ) 3 आगन्तुको मलः ।
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4 परमप्रकर्ष । ( व्या० प्र० )
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