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सर्वज्ञसिद्धि ]
प्रथम परिच्छेद
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विशेषार्थ-किसी का कहना है कि हम लोगों का ज्ञान इन्द्रियों की अपेक्षा से ही होता है अतः सर्वज्ञ का ज्ञान भी वैसा ही होना चाहिये क्योंकि जैसे हम मनुष्य हैं वैसे ही सर्वज्ञ भी तो मनुष्य ही हैं । इस पर आचार्य कहते हैं कि भाई ! किसी को अञ्जन गुटिका सिद्ध है उसने उसे आँख में लगा लिया तो उसे अंधेरे में भी दिखने लगता है परन्तु हम और आपको तो अंधेरे में नहीं दीखता है। आपके कथनानुसार अञ्जन गुटिका सिद्धि वाले को भी अंधेरे में नहीं दिखना चाहिये । तब वह झट बोल पड़ा कि अंधेरे में तो उल्लू, बिल्ली आदि को भी दीख जाता है अतः प्रकाश और अंधेरा ज्ञान और अज्ञान में नियम रूप से कारण नहीं हैं । तब आचार्य कहते हैं कि किसी को स्वप्न में सम्मेदशिखर का पर्वत ज्यों का त्यों दीख गया, आचार्य शांतिसागर जी महाराज के दर्शन हो गये । इस सत्य स्वप्न में इन्द्रियों की अपेक्षा तो नहीं है फिर भी स्पष्ट प्रत्यक्ष ज्ञान है अतः इन्द्रियों से ही प्रत्यक्ष ज्ञान हो, यह नियम नहीं रहा । देखिये ! अञ्जन आदि से संस्कृत आँखें स्पष्टतया अंधेरे में भी सब वस्तुयें देख लेती हैं उसी प्रकार से मोहकर्म, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन घातिया कर्मों का नाश हो जाने से अहंतभगवान् के केवलज्ञान आदि नवलब्धियाँ प्रगट हो जाती हैं अतः केवलज्ञान में न इन्द्रियों की सहायता है न क्रम-क्रम से होना है क्योंकि केवलज्ञान और दर्शन दोनों ही युगपत् एक समय में सारे पदार्थों को जान लेते हैं। अतः इस ज्ञान में व्यवधान-अंतर भी नहीं पड़ता है। ऐसे इन्द्रिय से, क्रम और अंतर से रहित केवलज्ञानी भगवान् ही संसारी जीवों के गुरु हैं, स्वामी हैं अतएव सभी के नाथ, तीन लोक के नाथ कहलाते हैं।
सर्वज्ञ के अतींद्रिय ज्ञान की सिद्धि का सारांश
मीमांसक, चार्वाक और तत्त्वोपप्लववादी सामान्य से भी सर्वज्ञ को नहीं मानते हैं एवं सौगत, सांख्य, वैशेषिक आदि सर्वज्ञ विशेष को नहीं मानते हैं।
संवेदनाद्वैतवादी, चित्राद्वैतवादी, ब्रह्माद्वैतवादी और शब्दाद्वैतवादी ये एक प्रमाणवादी तीर्थच्छेद संप्रदाय वाले हैं वैसे ही चार्वाक भी प्रत्यक्ष एक ही प्रमाण मानने वाले तीर्थच्छेद संप्रदाय मानने वाले हैं क्योंकि ये सभी परमागम संप्रदाय का निराकरण करने वाले हैं।
जैसे कपिल, बौद्ध आदि अनेक प्रमाणवादी तीर्थच्छेद संप्रदाय वाले हैं तथैव तत्त्वोपप्लववादी भी "न एक: प्रमाणं-अनेक: प्रमाणं" के अनुसार अनेक प्रमाणवादी हो गए तथा सभी के आप्त, आगम और वस्तु समूह को स्वीकार करने की इच्छा रखते हुए अनेक प्रमाणवादी वैनयिक तीर्थच्छेद संप्रदायवादी हैं क्योंकि ये सभी परस्पर विरुद्ध कथन करने वाले हैं।
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