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सर्वज्ञ अतींद्रिय ज्ञानी है । प्रथम परिच्छेद
[ २८१ सकलप्रत्यक्षस्यैव पक्षत्ववचनात्, तत्र चास्य हेतोः सद्भावात्, विकलप्रत्यक्षस्यावधिमनःपर्ययाख्यस्यापक्षीकरणात् । न चास्मदादिप्रत्यक्षेक्षापेक्षोपलक्षणात्सकल वित्प्रत्यक्षेपि सास्त्येवेति
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शंका-ये दोनों हेतु अवधि और मनःपर्यय ज्ञान में असंभव हैं अतः ये हेतु पक्ष में अव्यापक होने से अहेतु हैं । अर्थात् अवधि और मनःपर्यय ज्ञान अतींद्रिय प्रत्यक्ष तो हैं परन्तु आपके संपूर्णतया मोह से रहित होना और सर्वदर्शी होना रूप दोनों हेतु इन ज्ञानों में नहीं रहने से ये दोनों हेतु अहेतु हैं।
समाधान-ऐसा भी नहीं कहना क्योंकि सकल प्रत्यक्ष को ही हमने पक्ष बनाया है और वहाँ पर उन हेतुओं का सद्भाव है । विकल प्रत्यक्षरूप अवधि मनःपर्यय को हमने पक्ष में नहीं लिया है।
विशेषार्थ-शंकाकार का अभिप्राय यह है कि अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान इंद्रियों की अपेक्षा न रखने से अतींद्रिय प्रत्यक्ष हैं फिर भी इनके धारक अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी सर्वज्ञ क्यों नहीं कहलाते हैं और यदि आप इन्हें सर्वज्ञ, प्रत्यक्षदर्शी नहीं मानते हो तब तो इनके ज्ञान को आप इंद्रियजन्य कहिये । इस पर आचार्य कहते हैं कि ये दोनों ही ज्ञान अवधिज्ञानावरण और मनःपर्ययज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम विशेष की अपेक्षा रख कर आत्मा से ही उत्पन्न होते हैं इनमें इंद्रियों की सहायता नहीं है अतः ये ज्ञान अतींद्रिय हैं फिर भी इनके धारक सर्वज्ञ नहीं होते हैं क्योंकि इनमें ज्ञानावरणादि कर्मों का क्षयोपशम कारण है न कि क्षय ।
दूसरी बात यह भी है कि अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी जीवों के मोह कर्म का पूर्णतया नाश नहीं हुआ है एक देश ही अभाव हुआ है और ये सर्वदर्शी भी नहीं हैं सीमित पदार्थों को हो देखने वाले हैं। इन दोनों ज्ञानों को प्रत्यक्ष इसलिये कहा है कि ये अपने विषय का स्पष्ट ज्ञान करते हैं एवं अतींद्रिय इसलिये हैं कि ये इंद्रियों की सहायता के बिना ही उत्पन्न होते हैं। एवं “साकल्येन विरतव्यामोहत्त्वात्" और "सर्वदर्शनात्" ये दोनों हेतु व्यभिचारी भी नहीं हैं क्योंकि विपक्ष रूप इंद्रिय जन्य परोक्ष मति, श्रुतज्ञान में ये दोनों हेतु नहीं पाये जाते हैं।
किसी ने कहा कि भले ही आपके हेतु व्यभिचारी न हो सकें किंतु पक्ष में पूर्णतया व्याप्त न होने से अव्यापक रूप से अहेतु अवश्य हैं क्योंकि आप जैनों ने अवधि, मनःपर्ययज्ञान को अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष अवश्य माना है किन्तु उनमें पूर्णतया मोह का अभाव और सर्वदर्शीपना नहीं है । इस आशंका पर जैनाचार्यों ने कहा कि भाई ! हमने पक्ष में सकल प्रत्यक्ष केवलज्ञान को ही लिया है । इन विकल प्रत्यक्ष रूप दोनों ज्ञानों को पक्ष में नहीं लिया है अतः हमारे हेतु अहेतु नहीं हैं । अर्थात् प्रत्यक्ष के दो भेद हैं सकल और विकल । सर्वज्ञ भगवान् के सकल प्रत्यक्ष पाया जाता है अतः उसी को यहाँ पक्ष में लिया गया है। अन्यत्र न्यायदीपिका में दूसरी भी शंका देखी जाती है
__कोई कहता है कि केवलज्ञान को पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहना ठीक है किंतु अवधि और मन:पर्यय को पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहना ठीक नहीं है क्योंकि ये दोनों एक देश प्रत्यक्ष हैं। इस पर आचार्यों का
1 केवलज्ञानस्य । (ब्या० प्र०)
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