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अष्टसहस्री
[ कारिका ३
२८२ ] वक्तुं शक्यम्', अञ्जनादिभिरसंस्कृतचक्षुषोऽस्मदादेरालोकापेक्षोपलक्षणात् तत्संस्कृतचक्षुषोपि कस्यचिदालोकापेक्षाप्रसङ्गात् । 'नक्तञ्चराणामालोकापायेपि स्पष्टरूपावलोकनप्रसिद्ध लोको नियतं कारणं प्रत्यक्षस्येति चेत्तर्हि सत्यस्वप्नज्ञानस्ये"क्षणिकादिज्ञानस्य च स्पष्टस्य चक्षुराद्यनपेक्षस्य प्रसिद्ध रक्षमपि नियतं प्रत्यक्षकारणं मा भूत् । ततो यथाजनादिसंरकृतचक्षुषामालोकानपेक्षा स्फुटं रूपेक्षणे तथा साकल्येन विरतव्यामोहस्य सर्वसाक्षात्करणेऽक्षानपेक्षा । इतिकरणक्रमव्यवधानातिवत्तिसकलप्रत्यक्षो 'भवभृतां गुरुः प्रसिध्द्यत्येव ।
कहना है कि सकलपना और विकलपना यहाँ विषय की अपेक्षा से है स्वरूप की अपेक्षा से नहीं है क्योंकि केवलज्ञान संपूर्ण द्रव्यों और पर्यायों को विषय करने वाला होने से सकल प्रत्यक्ष कहा जाता है, किंतु अवधि और मनःपर्यय कुछ पदार्थों को विषय करते हैं इसलिये वे विकल प्रत्यक्ष कहे जाते हैं, परन्तु इतने मात्र से इन दोनों ज्ञानों में पारमार्थिकता की हानि नहीं होती है, क्योंकि पारमार्थिकता का कारण सकल पदार्थों को विषय करना नहीं है अपितु पूर्ण निर्मलता है और वह पूर्ण निर्मलता-स्पष्टता केवल ज्ञान के समान अवधि, मनःपर्यय में भी विद्यमान है अतः ये दोनों ज्ञान पारमार्थिक ही हैं।
निष्कर्ष यह निकला कि ये दोनों ज्ञान अतीन्द्रिय होकर भी सकलप्रत्यक्ष नहीं हैं विकलप्रत्यक्ष हैं इसलिये सर्वज्ञ के ज्ञान को पक्ष बनाने में ये दोनों ज्ञान नहीं आते हैं।
__ शंका-हम लोगों के प्रत्यक्ष में इंद्रियों की अपेक्षा देखी जाती है अतः सर्वज्ञ के प्रत्यक्ष में भी वह अपेक्षा होनी ही चाहिये।
समाधान-आपका ऐसा कहना भी शक्य नहीं है, अन्यथा अञ्जनादि से संस्कृत नहीं हुये हम लोगों के नेत्र प्रकाश की अपेक्षा रखते हैं पुनः किसी के अञ्जनादि से संस्कृत नेत्र भी प्रकाश की अपेक्षा रखने लग जावेंगे तब अञ्जन गुटिका आदि विद्याओं का क्या महत्व रहेगा?
शंका-नक्तंचर-उल्लू, बिल्ली आदि जीवों का प्रकाश के अभाव में भी स्पष्टतया, रूपपदार्थ का देखना प्रसिद्ध है इसलिए प्रकाश प्रत्यक्ष के लिये निश्चित कारण नहीं है।
जैन-तब तो सच्चे स्वप्न का ज्ञान और ईक्षणिकादि ज्ञान चक्ष आदि इंद्रियों की अपेक्षा न करके ही स्पष्ट प्रसिद्ध हैं अतः इंद्रियाँ भी प्रत्यक्ष ज्ञान के लिये निश्चित कारण न होवें क्या बाधा है ? इसलिये जैसे अञ्जनादि से संस्कृत चक्षु को स्पष्टतया रूप को देखने में प्रकाश की अपेक्षा नहीं है उसी प्रकार से सम्पूर्णतया मोह रहित पुरुष को सभी का साक्षात्कार करने में इंन्द्रियों की अपेक्षा नहीं है ।
इस प्रकार इन्द्रियों से क्रम से और व्यवधान से रहित सकलप्रत्यक्षज्ञानी संसारी जीवों के गुरु प्रसिद्ध ही हैं।
1 परेण । 2 परिज्ञानात् । (ब्या० प्र०) 3 तथा लोके नास्ति । (ब्या० प्र०) 4 जैनेनानिष्टापादानमकारि तत्परिहारमिति मीमांसकः नक्तञ्चरेत्यादिना। 5 किंत्विंद्रियमेव । (ब्या० प्र०) 6 ईक्षणिका=यक्षरा शाकिनी ग्राह्या (?)। 7 प्राणिनां भवभृतां । (ब्या० प्र०) 8 भवेतामिति पाठान्तरम् ।
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