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सर्वज्ञसिद्धि ] प्रथम परिच्छेद
[ २८५ [ पूर्वोक्तकारिकात्रयकथितहेतुभिर्भगवान् महान् नास्ति, प्रत्युत दोषावरणरहितत्वादेव महान् ] उत्थानिका
'यतश्चासौ न देवागमादिविभूतिमत्त्वादध्यात्म बहिरपि दिव्यसत्यविग्रहादिमहोदयाश्रयत्वाद्वा महान, नापि तीर्थकृत्त्वमात्रात्, यतश्च तीर्थच्छेदसम्प्रदायोपि वैदिको नियोगभाव
सर्वज्ञ बन जाता है तब उसका निषेध कैसे करेगा ? तथा आवरण निमित्तक भावेन्द्रियों के नाश हो जाने से अतीन्द्रिय ज्ञान उत्पन्न होता है जो कि भूत, भावी सूक्ष्मादि पदार्थों को ग्रहण करने में युगपत् ही समर्थ है। यदि आप कहो कि अज्ञान का कारण क्या है ? तो ज्ञानावरण कर्म है एवं ज्ञानावरणादि के कारण मोहनीय आदि कर्मों का उदय है। संपूर्णतया मोह से रहित पुरुष पूर्ण ज्ञानी हो सकते हैं अतः सर्वज्ञ भगवान् को इन्द्रियादिकों की अपेक्षा नहीं है क्योंकि वे संपूर्णतया मोह से रहित है अथवा सर्वदशी है। जसे अजनादि से संस्कृत चक्ष प्रकाशादि की अपेक्षा नहीं रखते हैं एक देश मोह से रहित, असर्वदर्शी, अवधिज्ञानी, मन.पर्ययज्ञानी अपने-अपने आवरण के क्षयोपशन से अपने-अपने विषय को स्पष्ट जानते हैं अतः हमारा हेतु सर्वमोह रहित, सर्वदर्शी उनसे अनेकांतिक नहीं है क्योंकि यहाँ सकल प्रत्यक्ष की विवक्षा है। अतः इन्द्रिय और क्रम के व्यवधान से रहित सकल प्रत्यक्षज्ञानी संसारी जीवों के गुरु प्रसिद्ध ही हैं जो कि सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं ऐसा समझना चाहिये।
पूर्वोक्त तीन कारिकाओं में कथित तीन हेतुओं से भगवान महान नहीं हैं किंतु दोष और
आवरण से रहित होने से ही भगवान् महास् हैं ] हे भगवन् ! देवागमादि विभूतिमान् होने से अथवा अध्यात्म और बहिरंग दिव्य, सत्य विग्रहादि महोदय के आश्यीभूत होने से भी आप महान् नहीं है एवं तीर्थकृत्त्व मात्र से भी आप महान् नहीं हैं क्योंकि तीर्थ के उच्छेदक--विनाशक संप्रदाय वाले भी वैदिक जन के नियोम, भावना आदि संप्रदाय संवादक (प्रमाणभूत) नहीं हैं। अथवा प्रत्यक्ष ही एक प्रमाण वाले चार्वाक या तत्त्वोपप्ल
1 कारणात् । (व्या० प्र०) 2 कारणात् । (व्या० प्र०)
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