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अष्टसहस्री
[ कारिका ३अद्वैतवादियों के यहां स्वपक्षसाधन परपक्षदूषण वचन भी अद्वैत के विरुद्ध हैं यदि संवृत्ति से या अविद्या से कहो तो अद्वैत भी कल्पित ही सिद्ध होता है। चार्वाक के यहाँ प्रत्यक्ष एक प्रमाण से ही परलोक पुण्य-पापादि का विरोध आ जाता है तथा कपिल, वैशेषिक, नैयायिक, प्रभाकर आदि अनेक प्रमाण मानकर भी तर्क प्रमाण नहीं मानते हैं अतएव तर्क के बिना प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान आदि साध्य साधन की व्याप्ति को ग्रहण नहीं कर सकते हैं । वैनयिक, सुगत, सांख्य आदि इन सबमें परस्पर में विरोध होने से इनमें से कोई भी आप्त नहीं हो सकता है । तथाहि "तीर्थच्छेद संप्रदाय वाले एकांतवादी निरावरण ज्ञानधारी नहीं हैं क्योंकि वे अविशिष्ट वचन, इन्द्रियज्ञान और इच्छादि से सहित हैं अथवा सामान्य पुरुष आदि हैं जैसे-रथ्या पुरुष ।"
किंतु हमारे सर्वज्ञ अविशिष्ट वचनादिमान् या अविशिष्ट पुरुष नहीं हैं क्योंकि वे सर्वज्ञ युक्ति और शास्त्र से अविरोधि वचन वाले हैं इन्द्रियों के क्रम व्यवधान से रहित हैं तथा इच्छा से भी रहित हैं अतः कः-परमात्मा चित्-चैतन्य पुरुष ही आवरण का नाश हो जाने से संसारी प्राणियों के गुरु हैं "कः परमात्मा परा आत्यंतिकी, मा–लक्ष्मीर्यस्येति" क:-परमात्मा ही चित् सर्वज्ञ हैं। .
मीमांसक-पदार्थों को जानने वाला परमात्मा अतींद्रिय ज्ञानी नहीं हो सकता है क्योंकि अतींद्रिय ज्ञानी हमें कोई उपलब्ध नहीं होता है तथा इंद्रियों के द्वारा धर्माधर्मादि सभी पदार्थ जाने नहीं जा सकते अतएव कोई भी सर्वज्ञ नहीं है "सम्बद्धं वर्तमानं च गृह्यते चक्षुरादिभिः" इसलिये भूत और भविष्यत् कालीन पदार्थ के ज्ञान का अभाव होने से कोई भी सर्वज्ञ सिद्ध नहीं है । अनुमानादि से भी सर्वज्ञ का ज्ञान नहीं हो सकता है। आगम भी अनादि है अत: आदिमान् सर्वज्ञ को कैसे कहेगा? यदि अनित्य आगम मानें तो वह अल्पज्ञ प्रणीत होने से अप्रमाण है एवं सर्वज्ञ प्रणीत कहो तो परस्पराश्रय दोष दुनिवार है। सर्वज्ञ के सदृश कोई न होने से उपमान प्रमाण भी सर्वज्ञ ग्राहक नहीं है तथा अर्थापत्ति से भी वह ग्रहण नहीं होगा अतएव सत्ता को ग्रहण करने वाले पांचों प्रमाणों का विषय न होने से वह सर्वज्ञ अभाव प्रमाण का ही विषय है। अतः सर्वज्ञ को ग्रहण करने वाला कोई भी प्रत्यक्षादि प्रमाण नहीं है।
जैन-यह कथन बिना मीमांसा के ही है। लब्धि और उपयोग के संस्कारों का अर्थात् "लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम्" से भावेन्द्रिय संस्कार रूप क्षयोपशम ज्ञाम का नाश हो जाने से सर्वज्ञ होता है।
तथा द्रव्येद्रियां तो अंगोपांग नाम कर्म की रचना विशेष हैं । वे आवरण निमित्तक नहीं हैं अतः पूर्णतया ज्ञानावरण, दर्शनावरण के क्षय हो जाने से पूर्ण ज्ञानी सर्वज्ञ सिद्ध है वह आगम एवं "सुनिश्चितासंभवबाधकप्रमाण" से सिद्ध है। आप सर्वज्ञ को अभाव प्रमाण से कैसे निषेध करेंगे क्योंकि
"गृहीत्वा वस्तुसद्भावं स्मृत्वा च प्रतियोगिनं ।
मानसं नास्तिता ज्ञानं जायतेऽक्षानपेक्षया ॥" जब कोई मनुष्य सभी मनुष्यों को जान लेवे पुनः सर्वज्ञ के ज्ञापक काल का स्मरण करके मन में "सर्वत्र सर्वज्ञ नहीं है" ऐसा ज्ञान करे तब उसका अभाव कहेगा पुनः वह सभी को जान लेने से स्वयं ही
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