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अष्टसहस्री
। कारिका ३
व्यञ्जनपर्यायात्मकं जीवादितत्त्वं साक्षात्कुर्वीतेति 'चेदिमे' ब्रूमहे । यद्यस्मिन् सत्येव भवति तत्तदभावे न भवत्येव । यथाग्नेरभावे धूमः । सम्बन्ध्यन्तरे सत्येव भवति चात्मनो व्यामोहस्तस्मात्तदभावे स न भवतीति निश्चीयते ।
- उस ज्ञानावरण कर्म का अभाव हो जाने पर संपूर्ण रूप से मोह रहित पुरुष सभी अतीतानागत वर्तमान पदार्थों को देख लेता है क्योंकि उस ज्ञान में प्रत्यासत्ति और विप्रकर्ष दोनों ही कारण अकिचित्कर हैं।*
मीमांसक-ज्ञानावरणादि संबंध्यंतर का अभाव हो जाने पर यह जीवात्मा संपूर्ण रूप से मोहरहित कैसे हो जावेगा कि जिससे यह सभी अतीतानागत वर्तमान स्वरूप अनंत अर्थपर्याय और अनंत व्यंजनपर्याय रूप जीवादि तत्त्व को साक्षात् कर सके अर्थात् यह जीव न ज्ञानावरण कर्म से रहित हो सकता है न मोह कर्म से रहित ही हो सकता है और न सम्पूर्ण पदार्थों को ही जान सकता है । मतलब मीमांसक ने जीव को सर्वथा अशुद्ध ही माना है कभी भी उसे शुद्ध, कर्मरहित सिद्ध होना नहीं मानते हैं।
जैन-यदि आप ऐसा कहें तो हम आपको बतलाते हैं कि जो जिसके होने पर ही होता है वह उसके अभाव में नहीं होता है। जैसे कि अग्नि के अभाव में धूम नहीं होता है क्योंकि वह धूम अग्नि के होने पर ही होता है उसी प्रकार से संबंध्यंतर-ज्ञानावरण कर्म के होने पर ही आत्मा में व्यामोह -अज्ञानभाव होता है इसलिए उस ज्ञानावरण के अभाव में वह अज्ञान नहीं होता है ऐसा निश्चित हो जाता है । अर्थात् संसार अवस्था में भी जीवों के जैसे-जैसे ज्ञानावरण का क्षयोपशम बढ़ता जाता है वैसे -वैसे ही जीव में ज्ञान भी तरतमता से बढ़ता जाता है। हम देखते हैं कि एकेन्द्रिय की अपेक्षा दो इंद्रिय आदि में ज्ञान वृद्धिंगत हो रहा है तथैव मनुष्यों में भी तरतमता देखी जाती है और जब कारण सामग्री से पूर्णतया ज्ञानावरण का नाश हो जाता है तब पूर्ण ज्ञान प्रकट हो जाता है ।
भावार्थ-जैनाचार्य कहते हैं कि यह ज्ञान आत्मा का स्वभाव है इसलिये ज्ञान स्वरूप आत्मा युगपत् संपूर्ण पदार्थों को जान लेता है । इस कथन पर मीमांसक ने घबड़ा कर प्रश्न कर ही दिया कि पुनः हम और आप जैसे सभी संसारी जन अज्ञानी कैसे दिख रहे हैं ? क्योंकि मीमांसक ज्ञान को आत्मा का स्वभाव नहीं मानता है तथा आत्मा को कभी शुद्ध होना, मुक्त होना भी नहीं मानता है यह सदैव आत्मा को संसारी कर्ममल, अज्ञान आदि से सहित ही मानता है एवं इसका यह भी कहना है कि कोई भी आत्मा अपौरुषेय वेदवाक्यों से ही भूत भविष्यत् आदि अतींद्रिय पुण्य पाप आदि को
1 पर्यायो द्विधार्थव्यञ्जनभेदात् । व्यञ्जनः स्थूलपर्यायः । सूक्ष्मः प्रतिक्षणध्वंसी पर्यायश्चार्थपर्यायः । 2 स्थूलो व्यंजनपर्यायो वाग्गम्यो नश्वरः स्थिरः। सूक्ष्मः प्रतिक्षणध्वंसी पर्यायश्चार्थसंज्ञकः ॥ (ब्या० प्र०) 3 प्रश्नद्वये सति । (ब्या० प्र०) 4 प्रत्यक्षीभूता वयं जनाः। 5 आत्मनो व्यामोहः संबंध्यंतराभावे न भवत्येव तस्मिन् सत्येव भावात् । (ब्या०प्र०) 6 अज्ञानम् ।
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