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मीमांसक द्वारा सर्वज्ञ का अभाव ]
प्रथम परिच्छेद
प्रत्यक्षादिप्रमाणत्वात् प्रसिद्धप्रत्यक्षादिप्रमाणवत्' । न 2 गृद्धवराहपिपीलिकादिप्रत्यक्षेण सन्निहित देशविशेषानपेक्षिणा 'नक्तञ्चरप्रत्यक्षेण वालोकानपेक्षिणानेकान्तः, 'कात्यायनाद्यनु'मानातिशयेन जैमिन्याद्यागमाद्यतिशयेन' वा । तस्यापीन्द्रियादि 'प्रणिधानसामग्रीविशेषमन्तरेणासंभवात् स्वार्थाति' लङ्घनाभावाद"तीन्द्रिया" ननुमेयाद्यर्थाविषयत्वाच्च ।
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बुद्धिमत्कारणक सिद्ध करने में 'सन्निवेशविशिष्ट' हेतु अप्रयोजक है। अर्थात् प्रयोजनीभूत नहीं है ।
मीमांसक - आपका यह कथन असत् है । तथाभूत- इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षादि को ही हम उस प्रकार से ( सर्वज्ञ को ग्रहण करने वाला) सिद्ध करते हैं एवं उसमें सिद्ध साधन दोष का भी अभाव है क्योंकि अन्य प्रकार के - अतींद्रिय प्रत्यक्षादि प्रमाण हैं ही नहीं । तथाहि
" विवाद में आये हुए प्रत्यक्षादि प्रमाण इन्द्रियादि सामग्री विशेष से अनपेक्ष- अपेक्षा रहित नहीं होते हैं क्योंकि वे प्रत्यक्षादि प्रमाण हैं जैसे कि हम लोगों के प्रसिद्ध प्रत्यक्षादि प्रमाण ।" एवं सन्निहित देश विशेष की अपेक्षा न करने वाले गृद्ध, बराह, पिपीलकादि के प्रत्यक्ष से अथवा आलोक की अपेक्षा न रखने वाले नक्तंचर - बिल्ली, घूक- उल्लू, मूषक आदि के प्रत्यक्ष से अनेकांत दोष भी नहीं है । अर्थात् गृद्ध पक्षी को सन्निहित - निकट चीज की अपेक्षा न होने पर भी चक्षु का ज्ञान हो जाता है, सूकर को सन्निहित की अपेक्षा बिना श्रोत्रेन्द्रिय का ज्ञान हो जाता है तथा पिपीलिकाचिउंटी' को सन्निहित - निकट वस्तु के बिना भी घ्राणेन्द्रिय से सुगंधि आदि का ज्ञान हो जाता है तथा बिल्ली, उल्लू आदि को बिना प्रकाश के भी ज्ञान हो जाता है किंतु इनके प्रत्यक्ष से हमारा " प्रत्यक्षादिप्रमाणत्वात्" हेतु अनैकांतिक नहीं है ।
और कात्यायन - वररुचि आदि के अनुमानातिशय से - व्याप्ति और स्मरण के बिना उत्पन्न अनुमान से अथवा जैमिनी आदि के आगम के अतिशय से - संकेत स्मरण के बिना होने वाले आगम से भी हेतु अनेकांतिक नहीं है क्योंकि वे भी इन्द्रियादि के प्रणिधान - एकाग्रता रूप सामग्री विशेष के बिना असंभव हैं एवं अपने विषय का उलंघन नहीं कर सकते हैं तथा वे अतींद्रिय और अननुमेय - इन्द्रिय और अनुमान के विषय से रहित पदार्थों को विषय नहीं करते हैं ।
भावार्थ-मीमांसक का कहना है कि जैसे हम लोगों का प्रत्यक्ष इन्द्रिय और मन की सहायता से होता है उसी प्रकार से सभी जीवों का प्रत्यक्ष इन्द्रियों की और मन की सहायता रखता ही है बिना
1 एतदनुमानस्य खण्डनमत एवाक्षानपेक्षाऽञ्जनादिसंस्कृतचक्षुषो यथालोकानपेक्षा इति भाष्यव्याख्यानावसरे प्रोक्तं द्रष्टव्यम् । 2 गृद्धस्य चाक्षुषं वराहस्य श्रोत्रं पिपीलिकायास्तु प्राणजम् । 3 बिडालघूकमूषकादयो नक्तञ्चराः । 4 कात्यायनो = वररुचिः । 5 व्याप्तिस्मरणमन्तरेणोत्पन्नत्वलक्षणेन 1 6 स तस्मरणमन्तरेण । 7 एकाग्रता । 8 स्वार्थी नियतविषयः । 9 रूपादि । ( ब्या० प्र० ) 10 उक्तं एव भावयति अतीन्द्रियाननुमेयेत्यादिना । (ब्या० प्र०) 11 अतीन्द्रियं च तदननुमेयं चेति द्वन्द्वः ।
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