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अष्टसहस्री
[ कारिका ३[ इन्द्रियाणि स्वविषयानेव गृण्हंति न तु परविषयानतः इन्द्रियज्ञानेन कश्चित्सर्वज्ञो भवितुं नार्हति ]
तथा चोक्तं--- "यत्राप्यतिशयो दृष्टः स स्वार्थानतिलंङ्घनात् । दूरसूक्ष्मादिदृष्टौ स्यान्न रूपे श्रोत्रवृत्तिता ॥१॥ 4येपि सातिशया दृष्टा: प्रज्ञामेधादिभिर्नराः । स्तोकस्तोकान्तरत्वेन न त्वतीन्द्रियदर्शनात ॥२॥ प्राज्ञोपि हि नरः सूक्ष्मानर्थान् द्रष्टुं क्षमोपि सन् । स्वजातीरनतिकाम न्नतिशेते11 परान्नरान ॥३॥ इन्द्रिय, मन की सहायता के प्रत्यक्ष ज्ञान असंभव है। जिन-जिन जीवों के इन्द्रिय ज्ञानों में विशेषता पाई जाती है वह विशेषता भी अपने-अपने विषय में ही पाई जाती है। जैसे कि गृद्ध पक्षी को निकट की अपेक्षा न करके भी चक्षु इन्द्रिय से रूपी पदार्थों का ज्ञान हो जाता है, सूकर को अतिदूर से कर्णन्द्रिय से सुनाई दे देता है, चिउंटी को बहुत दूर की भी सुगंधि-दुर्गन्धि आ जाती है। यद्यपि इनके ज्ञानों में विशेषता पाई जाती है फिर भी चक्षु इन्द्रिय से देखने का ही ज्ञान होता है न कि सुनने और चखने का । तथैव नक्तंचर उल्लू आदि को बिना प्रकाश के भी अंधेरे में ज्ञान हो जाता है तो भी चक्षु इन्द्रिय से देखने का ही ज्ञान होता है न कि सूंघने आदि का । अतएव इन्द्रियजन्य ज्ञान में कितनी भी विशेषता क्यों न आ जावे वह ज्ञान अपने विषय में ही होता है । पुनः इन्द्रिय ज्ञान के सिवाय अतीं. द्रिय ज्ञान की कल्पना करना व्यर्थ ही है। [ इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय को ही ग्रहण करती हैं पर के विषय को नहीं, अतः इन्द्रियज्ञान से कोई भी सर्वज्ञ नहीं
हो सकता है ] कहा भी है
श्लोकार्थ-जिस इन्द्रिय में अतिशय देखा जाता है वह अपने विषय का उलंघन नहीं कर सकती है दूरवर्ती और सूक्ष्मादि रूप देखने में श्रोत्रेन्द्रिय का व्यापार नहीं हो सकता है ॥१॥
जो मनुष्य प्रज्ञा, मेधा आदि से भी अतिशयवान् देखे जाते हैं वे सूक्ष्म और उससे भी सूक्ष्मतर आदि को जानने से ही अतिशयशाली हैं किंतु अतींद्रिय पदार्थ को देखने रूप अतिशय वाले नहीं हैं ॥२॥
बुद्धिमान मनुष्य सूक्ष्म पदार्थों को देखने में समर्थ होता हुआ भी ततत् विषयक-उस उस विषय में अपनी जाति को उलंघन न करते हुये ही अन्य मनुष्यों का उलंघन करके उनसे विशेष कहा जाता है ॥३॥ 1 इन्द्रिये। 2 क्रियमाणायाम् । 3 श्रोत्रवृत्तित: इति पा०। (ब्या० प्र०) 4 ननु च प्रज्ञा स्मृत्यादिशक्तीनां प्रतिपूरुषमतिशयदर्शनात्सिद्ध कस्यचित्काष्ठामापद्यमानं धर्मादिसूक्ष्माद्यर्थसाक्षात्कारिप्रत्यक्षमित्यारेकायामाह। 5नन च प्रज्ञामेधाश्रुतिस्मृतिऊहापोहप्रबोधशक्तीनां प्रतिपुरुषमतिशयदर्शनात्कस्यचित्प्रत्यक्षं सातिशयं सिद्धयत्यपरां काष्ठामापद्यमानं धर्मादिसूक्ष्माद्यर्थसाक्षात्कारि संभाव्यत एवेत्यारेकायामाह । (ब्या० प्र०) 6 ते इति अध्याहाराः । (ब्या० प्र०) 7 त्रिकालविषया प्रज्ञा, मेधा धीर्वारणावती, वर्तमानार्थग्राहिणी। (ब्या० प्र०) 8 ननु कश्चित् प्रज्ञावान्पुरुषः शास्त्रविषयान् सूक्ष्मान् अर्थान् उपलब्धं प्रभुरुपलभ्यते तद्वत् प्रत्यक्षतोऽपि धर्मादिसूक्ष्मानर्थान् साक्षात्कतु क्षमः किमिति न संभाव्यते ज्ञानातिशयानां नियमयितुमशक्तरित्याशंकायामाह । (ब्या० प्र०) 9 तत्तद्विषयाणाम्। 10 कर्तृ । (ब्या० प्र०) 11 अतिशयेन । (ब्या० प्र०)
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