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तत्त्वोपप्लववाद ]
प्रथम परिच्छेद
[ प्रवृत्तिशब्दस्य कोऽर्थं इति तत्त्वोपप्लववादी नैयायिकं पृच्छति ]
'प्रवृत्तिश्च प्रतिपत्तुः प्रमेयदेशोपसर्पणं प्रमेयस्य प्रतिपत्तौ स्यादप्रतिपत्तौ वा ? न तावदप्रतिपत्तौ सर्वत्र सर्वस्य' प्रवृत्तिप्रसङ्गात् । तत्प्रतिपत्तौ चेन्निश्चितप्रामाण्यात् संवेदनात्तत्प्रत्तिपत्तिरनिश्चितप्रामाण्याद्वा ? प्रथमपक्षे परस्पराश्रयणमेव सति प्रवर्त्तकस्य 7 संवेदनस्य प्रामाण्य निश्चये ततः प्रमेयप्रतिपत्तिः, सत्यां च प्रमेयप्रतिपत्तौ प्रवृत्तेः सामर्थ्यातत्प्रामाण्यनिश्चयात् । प्रमाणान्तरात्तत्प्रतिपत्तौ प्रथमसंवेदनस्य वैयर्थ्यं स एव च पर्यनुयो - गोनवस्थापत्तिकरः । "द्वितीयपक्षे तु प्रामाण्यनिश्चयानर्थक्यं स्वयमनिश्चितप्रामाण्यादेव संवेदनात्प्रमेयप्रतिपत्तिप्रवृत्तिसिद्धेः । " संशयात्प्रवृत्तिदर्शनाददोष इति चेत् 12 किमर्थमिदानी
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[ २११
[ प्रवृत्ति शब्द का क्या अर्थ है ? इस प्रकार से तत्त्वोपप्लववादी नैयायिक से प्रश्न करता है । ] अच्छा ! आप यह तो बतलाइये कि प्रवृत्ति शब्द का अर्थ क्या है ?
नैयायिक - ज्ञाता मनुष्य का प्रमेय-जानने योग्य देश को प्राप्त करना प्रवृत्ति है । तत्त्वोपप्लववादी - तब तो वह ज्ञाता की प्रवृत्ति प्रमेय का ज्ञान होने पर प्रमेय देश को प्राप्त करती है या प्रमेय का ज्ञान नहीं होने पर ?
द्वितीय पक्ष लेवो तो सभी प्रमेयों ( जानने योग्य पदार्थों) में सभी की प्रवृत्ति हो जावेगी । यदि प्रथम पक्ष लेवो कि प्रवृत्ति प्रमेय को जानकर उसमें प्रवृत्ति करती है तो प्रमाणभूत संवेदन सेसच्चे ज्ञान से उस प्रमेय का ज्ञान हुआ या अनिश्चित है प्रमाणता जिसकी ऐसे ज्ञान से ?
प्रथम पक्ष में तो परस्पराश्रय ही है । प्रवर्तक ज्ञान की प्रमाणता का निश्चय होने पर उससे प्रमेय का ज्ञान होगा और प्रमेय का ज्ञान हो जाने पर प्रवृत्ति की सामर्थ्य से उसकी प्रमाणता का निश्चय होगा । मतलब दोनों में से एक भी सिद्ध नहीं होंगे ।
यदि आप नैयायिक प्रमाणांतर से उसका ज्ञान मानें तो प्रथम ज्ञान व्यर्थ ही हो जावेगा एवं ही पूर्वोक्त प्रश्न उठते रहने से अनवस्था आ जावेगी । द्वितीय पक्ष लेवो कि अनिश्चित है प्रमाणता जिसकी ऐसे ज्ञान से निश्चय होता है तो प्रमाणता का निश्चय करना ही व्यर्थ हो जावेगा क्योंकि आपने स्वयं अनिश्चित प्रमाणता वाले ज्ञान से ही प्रमेय ज्ञान में प्रवृत्ति स्वीकार कर ली है ।
नैयायिक - संशय ज्ञान से भी तो प्रवृत्ति देखी जाती है अतः कोई दोष नहीं है ।
शून्यवादी - पुन: किसलिये यहाँ प्रमाण की परीक्षा करना है, जबकि सच्चे और झूठे संशयादि
1 तत्वोपप्लववादी इतः परं प्रवृत्ति विचारयति । 2 प्रमेये । 3 सर्वत्र स्थितस्य पुंसः । ( व्या० प्र० ) 4 नैयायिकः । 5 तत्त्वोपप्लववादी । 6 बस: । ( ब्या० प्र० ) 7 प्रवृत्तिहेतुत्वात् । (ब्या० प्र० ) 8 भो नैयायिक | 9 प्रमाणान्तरस्यापि । प्रामाण्यप्रवृत्तिसामर्थ्येन प्रवृत्तिश्च प्रतिपत्तुरित्यादिग्रन्थावतारः । 10 अनिश्चित प्रामाण्यादिति । 11 नयायिकः । 12 तत्त्वोपप्लवबादी ।
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