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अष्टसहस्री
[ कारिका ३
सिद्धं, सुनिश्चितासंभवत्साधकप्रमाणत्वस्य तद्बाधकस्य सद्भावात् । न हि 'तत्साधक प्रत्यक्षम् । नाप्यनुमानं, तदेकदेशस्य लिङ्गस्यादर्शनात् । तदुक्तं
सर्वज्ञो दृश्यते तावन्नेदानीमस्मदादिभिः। दृष्टो न चैकदेशोस्ति लिंगं वा योनुमापयेत् ।
इति । आगमोपि न तावन्नित्यः सर्वज्ञस्य प्रतिपादकोस्ति, तस्य कार्ये एवार्थे प्रामाण्यात् स्वरूपेपि' प्रामाण्येतिप्रसङ्गात् । स सर्ववित् लोकविदित्यादेहिरण्यगर्भः सर्वज्ञ इत्यादेश्चागमस्य नित्यस्य कर्मार्थवादप्रधानत्वात्। तात्पर्यासंभवादन्यार्थ'प्रधानर्वचनैरन्यस्यसर्वज्ञस्य विधाना
"सुनिश्चितासंभवसाधक प्रमाणत्व" मौजूद है । अर्थात् सुनिश्चित रूप से असंभव है सर्वज्ञ को सिद्ध करने वाला साधक प्रमाण जिसमें उसे "सुनिश्चितासंभवसाधक प्रमाण" कहते हैं मतलब सर्वज्ञ को सिद्ध करने वाला कोई भी साधक प्रमाण संभव नहीं है अतएव सर्वज्ञ नहीं है । तथाहि-सर्वज्ञ को सिद्ध करने वाला प्रत्यक्ष प्रमाण तो है नहीं एवं अनुमान भी नहीं है क्योंकि उसका एक देश रूप हेतु दिखता नहीं है । कहा भी है
श्लोकार्थ-"हम लोगों के द्वारा इस समय सर्वज्ञ देखा नहीं जाता है और उस सर्वज्ञ को एकदेश भी देखा नहीं जाता है कि जिसको हेतु बनाकर उस सर्वज्ञ का अनुमान कर लेवें।" नित्य आगम भी उस सर्वज्ञ का प्रतिपादक नहीं है वह तो कार्य (यज्ञादि) अर्थ में ही प्रमाण है उसकी स्वरूप में भी प्रमाणता मानने पर तो अति प्रसंग आ जाता है। अर्थात् अलाबू डूब रहे हैं, पत्थर तैर रहे हैं इन वाक्यों में भी प्रमाणता आ जावेगी और वेद में "आपः पवित्रं" इत्यादि स्वरूप का निरूपण करने वाले वाक्य हैं वे सभी प्रमाण हो जावेंगे।
___जो याग को करता है वह सर्ववित् है, वह लोकवित् है इत्यादि, हिरण्य गर्भः सर्वज्ञः इत्यादि रूप से जो नित्य आगम है वह कर्मार्थवाद में-क्रियाकांड में प्रधान है। उससे सर्वज्ञ रूप अर्थ में तात्पर्य-अर्थ निकालना असंभव है, अन्यार्थ प्रधान वचनों से स्तति अर्थ को कहने वाले वचनों से अन्य कोई सर्वज्ञ का विधान करना असंभव ही है। पूर्व में किसी प्रमाण से अप्रसिद्ध स्वरूप सर्वज्ञ का उन आगम के वाक्यों से अनुवाद-कथन नहीं किया जा सकता है एवं अनादि आगम आदिमान् सर्वज्ञ का प्रतिपादन कर सके यह बात विरुद्ध ही है। तथा अनित्य-बनाया हुआ आगम भी सर्वज्ञ का प्रतिपादन नहीं कर सकता है क्योंकि उस सर्वज्ञ के द्वारा प्रणीत ही आगम उस सर्वज्ञ का प्रकाशक होवे यह कथन युक्त नहीं है अन्यथा परस्पराश्रय दोष आ जाता है। एवं नरांतर-भिन्न साधारण मनुष्य
1 सर्वज्ञसाधकम् । 2 प्रत्यक्ष संभवति इति पा० । संबंधवर्तमानग्राहित्वात् । (ब्या० प्र०) 3 गृहीतसंबंधस्यैकदेशदर्शनादसन्निकृष्टेऽर्थे बुद्धिरनुमानमिति वचनादेकदेशदर्शने सत्यवानुमानोदयात् । मीमांसकानुमानलक्षणमिदं । (ब्या०प्र०) 4 लिङ्ग भूत्त्वा य एकदेशः सर्वज्ञमनुमापयेदित्यर्थः। 5 सर्वज्ञं । (ब्या० प्र०) 6 योगे। 7 वेदेऽपि सर्वज्ञप्रतिपादक वाक्यमस्तीति शंकामनद्यनिराकरोति । (ब्या० प्र०) 8 अलावनि निमज्जन्ति ग्रावाण: प्लवन्त इत्यत्रापि वेदे स्वरूपनिरूपकस्य आपः पवित्रमित्यादेरपि प्रामाण्यप्रसङ्गात् । 9 यो यागं करोति । 10 कर्मार्थवाद:=यागप्रशंसावादः तत्स्तुतिकथनं वा। 11 सर्वज्ञरूपेर्थे। 12 च । (ब्या० प्र०) 13 स्तुत्यर्थकथनपरैः ।
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