________________
तत्त्वोपप्लववाद का खंडन ]
प्रथम परिच्छेद
[ २२१ स्वत एवावसीयते स्वरूपवत्' । अनभ्यस्तविषये तु परत इति नानवस्थेतरेतराश्रयदोषोपनिपातः । स्वार्थव्यवसायात्मकत्त्वमेव हि सुनिश्चितासम्भवद्बाधकत्वम् । तच्चाभ्यासदशायां न परतः प्रमाणात्साध्यते, येनानवस्था स्यात्, परस्पराश्रयो वा, तस्य स्वत एव सिद्धत्वात् । तथानभ्यासदशायामपि परतः स्वयंसिद्धप्रामाण्याद्वेदनात् पूर्वस्य तथाभावसिद्धेः कुतोनवस्थादिदोषावकाशः ?
। नित्यानित्यात्मन्यात्मनि अभ्यासानभ्यासौ उभी अपि संभवतः ] 'क्वचिदभ्यासानभ्यासौ तु 'प्रतिपत्तुरदृष्ट विशेषवशाद्देशकालादिविशेषवशाच्च भवन्तौ 10सम्प्रतीतावेव, "यथावरणक्षयोपशममात्मनः सकृदसकृद्वा स्वार्थसंवेदनेऽभ्यासो
वसायात्मक पद से संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय का व्यवच्छेद हो जाता है और वह अभ्यास दशा में पर प्रमाण से सिद्ध नहीं किया जाता है कि जिससे अनवस्था आ सके अथवा परस्पराश्रय दोष आ सके अर्थात् ये दोनों दोष नहीं आ सकते हैं क्योंकि वह असंभवद्बाधकत्व स्वतः ही सिद्ध है उसी प्रकार से अनभ्यास दशा में भी स्वयं सिद्ध प्रमाणता वाले ज्ञानरूप अन्य प्रमाण से पूर्व को तथाभावप्रमाणता सिद्ध है पुनः अनवस्था आदि दोषों को अवकाश कैसे मिल सकता है ? अर्थात् पर से प्रमाणता में वह पर प्रमाण स्वतः प्रमाणांतर रूप है अतः उसके लिये तृतीय की आवश्यकता न होने से अनवस्था असंभव ही है।
[ कथंचित् नित्यानित्यात्मक आत्मा में अभ्यास-अनभ्यास दोनों ही संभव हैं। ] किसी विषय में अभ्यास और अनभ्यास ज्ञाता-पुरुष के अदृष्ट विशेष-भाग्य विशेष के निमित्त से और देश, कालादि की विशेषता से विद्यमान रूप प्रतीति में आ रहे हैं । अर्थात् ज्ञान में पुनः पुनः संवाद का अनुभव होना अभ्यास है और न होना अनभ्यास है। वे दोनों दृष्ट-देश, कालादि और अदृष्ट-भाग्य के निमित्त की विचित्रता से प्राणियों में देखे जाते हैं।
[ अभ्यास और अनभ्यास का लक्षण ] आत्मा के स्वार्थ संवेदन में अपने-अपने आवरणों का क्षयोपशम एकबार या पुनः-पुनः होना अभ्यास कहलाता है । अथवा स्वार्थ व्यवसायात्मक ज्ञानावरण कर्म के उदय में ज्ञान के नहीं होने पर अथवा एक बार ज्ञान के होने पर या पुनः-पुनः ज्ञान के होने पर भी अनभ्यास देखा जाता है। अर्थात् मतिज्ञान में जो चौथा भेद है उसका नाम धारणा है, उस धारणा से संस्कार बने रहते हैं, शीघ्र विस्मरण नहीं होता है उसी का नाम अभ्यास है । एवं एकेन्द्रिय आदि जीवों के ज्ञानावरण कर्म का
1 प्रमाण । (ब्या०प्र०) 2 व्यवसायात्मकत्वपदेन संशयविपर्ययानध्यवसायव्यवच्छेदः। 3 भन्यप्रमाणात् । 4 प्रामाण्य सिद्धेः। 5 विषये। 6 ज्ञाने भूयः संवादानुभवनमभ्यासस्तदभावोनभ्यासः । दृष्टादृष्टनिमित्तानां वैचित्र्यादिह देहिनाम् । जायते क्वचिदभ्यासोनभ्यासो वा कथञ्चन । 7 दृष्टादृष्टनिमितानां वैचित्र्यादिह देहिनां । जायते क्वचिदभ्यासोऽनभ्यासो वा कथंचन । (ब्या० प्र०) 8 अदृष्ट:पुण्यादिर्शानावरणादिश्च । १ बाह्यात् । (ब्या०प्र०) 10 बहधानुभवविषयत्वं नीतावित्यर्थः। 11 क्रियाविशेषणम् ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org