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अष्टसहस्री
- [ कारिका ३[ चार्वाकादिमते ज्ञानं स्वसंविदितं नास्ति अत: प्रमाणस्य व्यवस्था तेषां न घटते ] नापीन्द्रियजप्रत्यक्षे स्वप्रमा घटते, भूतवादिभिस्तस्यास्वसंविदितत्त्वोपगमात् । इति सिद्धा तत्र स्वप्रमाया व्यावृत्तिः । ततो न प्रत्यक्षत एव प्रमाणेतरसामान्यस्थित्यादिः । तदव्यावृत्तौ वा स्वार्थव्यवसायात्मकत्वसिद्धेः स्याद्वादाश्रयणादैकान्तिकत्वाभावादनकान्तिकत्वम् । एतेनानेकप्रमाणवादिनामनेकस्मिन् प्रमाणे स्वप्रमाव्यावृत्तिर्व्याख्याता। तदव्यावृत्तौ वानकान्तिकत्वप्रसक्तिः, अनेकशक्त्यात्मकस्वार्थव्यवसायात्मकानेकप्रमाणसिद्धः । तत्त्वोपप्लववादिनां तु तत्त्वोपप्लवे स्वप्रमाया व्यावृत्तिः सिद्धव । तदव्यावृत्तौ तत्त्वोपप्लवैकान्तिकत्वाभावप्रसक्तिश्च । ततो नैतेषामाप्तता। किञ्च10 11सर्वप्रमाणविनिवृत्तरितरथा2
[ चार्वाक आदि के मत में ज्ञान स्वसंविदित नहीं है अतः उनके यहाँ प्रमाण की व्यवस्था नहीं बनती है ]
इन्द्रियज प्रत्यक्ष में भी अपने को अपना ज्ञान नहीं हो सकता है, क्योंकि भूत चतुष्टयवादी चार्वाकों ने उस ज्ञान को अस्वसंविदित स्वीकार किया है। अतः उस प्रत्यक्ष प्रमाण में अपने ज्ञान की व्यावृत्ति (अभाव) सिद्ध ही है अतएव प्रत्यक्ष प्रमाण से ही प्रमाण और अप्रमाण सामान्य की स्थिति आदि नहीं हो सकती है। अथवा प्रत्यक्ष प्रमाण में ज्ञान की व्यावृत्ति न मानने पर तो ज्ञान स्वार्थ व्यवसायात्मक सिद्ध हो जाता है पुनः स्याद्वाद का आश्रय ले लेने से एकांत का अभाव होकर अनेकांत ही सिद्ध हो जाता है।
इस कथन से अनेक प्रमाणवादियों के अनेक प्रमाणों में अपने-अपने ज्ञान की व्यावत्ति सिद्ध ही है ऐसा व्याख्यान किया गया है अथवा यदि ज्ञान की व्यावृत्ति न मानो तो अनेकांत का प्रसंग आ ही जाता है क्योंकि अनेक शक्त्यात्मक रूप से स्वार्थव्यवसायात्मक स्वरूप अनेक प्रमाण सिद्ध हैं। अर्थात् ज्ञान को स्वार्थ निश्चायक माने बिना किसी के यहाँ ज्ञान का अस्तित्व सिद्ध नहीं हो सकता है।
तत्त्वोपप्लववादी के यहाँ संपूर्ण तत्त्व का उपप्लव-नाश मान लेने पर तो अपने ज्ञान की व्यावृत्ति (अभाव) सिद्ध ही है। यदि अपने ज्ञान की व्यावृत्ति (अभाव) न मानो तो तत्त्वोपप्लवरूप एकांत का ही अभाव हो जायेगा। अर्थात् अपने ज्ञान का सद्भाव मानने पर पुनः अपना ज्ञान ही तो प्रमाण प्रमेयरूप सिद्ध हो जाता है पुनः शून्यवाद कहां रहा ?
1 चार्वाकैः। 2 कुतो स्वसंविदितत्त्वं । भूतचतुष्टयोत्पन्नत्वात् । भूतचतुष्टयमस्वसंविदितमचेतनत्वात् कारणगुणा हि कार्यगुणानारभंते। (ब्या० प्र०) 3 प्रत्यक्षे। 4 स्वार्थव्यवसायरूपसांशत्वं । (ब्या० प्र०) 5 बौद्धापेक्षया निरंशत्वात् प्रमात्रादिव्यावृत्ती प्रमाया व्यावृत्तेरित्याधुक्तप्रकारेण । अन्येषामपेक्षया अस्वसंविदिततत्त्वोपगमादित्यायुक्तप्रकारेण च । 6 एताः शक्तयः कारणरूपाः। 7 एतत्कार्यरूपम् । 8 तत्त्वमुपप्लुतमेवेतिनियमाभावः । (ब्या० प्र०) 9 स्वप्रमाया: सद्भावे स्वप्रमाया एव प्रमाणप्रमेयरूपत्वात् । 10 पूर्वं तु परस्य प्रमाणमभ्युपगम्य दूषणमुक्तमिदानीं तदपि निराकरोति । 11 सूत्रे परस्परविरोधत इत्येतदुपलक्षणम् । तेन सर्वप्रमाणविनिवत्तेरित्यादेरपि ग्रहणम् । 12 कथञ्चिन्नित्यानित्यात्मकत्वेन ।
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