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अष्टसहस्त्री
[ कारिका ३अर्थ-वक्ता के कंठ, तालु आदि स्थानों से प्राणवायु के सहारे जो ककारादि वर्ण या स्वर उत्पन्न होते हैं उसे वैखरीवाक् कहते हैं।
अंतरंग में जो जल्परूप वचन हैं वे मध्यमावाक् हैं। जो ककारादि के क्रम से रहित हैं तथा ज्ञानरूप हैं जिसमें वाच्य, वाचक का विभाग नहीं होता है वे पश्यंतीवाक् हैं।
परम ज्योतीस्वरूप, अत्यंत दुर्लक्ष्य, काल आदि भेद से रहित ऐसी सूक्ष्मावाक् है । इसी सूक्ष्मावाक् से सारा विश्व व्याप्त है । यदि ज्ञान शब्द ब्रह्म की वचनरूपता का उलंघन करे तब तो कुछ भी ज्ञान का प्रकाश ही नहीं रहेगा।
___ इस शब्दाद्वैतवाद का प्रमेयकमलमार्तण्ड में श्री प्रभाचन्द्राचार्य ने बड़े ही सुन्दर ढंग से खंडन कर दिया है। आचार्य ने कहा है कि यह सारा जगत् शब्दमय है ऐसा अनुभव कहाँ होता है ? सारे ज्ञान शब्द से अनुविद्ध होकर ही होते हैं यह बात भी नहीं दिख रही है। नेत्रादि इंद्रियों से जो ज्ञान होता है उसमें शब्द का संबंध है ही नहीं। एक कर्ण ज्ञान को छोड़कर किसी भी ज्ञान में शब्द का संबंध नहीं है फिर भी यदि जबरदस्ती ही मानो तब तो हम आपसे प्रश्न करते हैं कि ज्ञान से शब्द का संबंध आपको कैसे हो रहा है, प्रत्यक्ष प्रमाण से या अनुमान प्रमाण से ? प्रत्यक्ष से कहो तो इन्द्रिय प्रत्यक्ष से नेत्र के द्वारा जो भी नीलादि पदार्थों का प्रतिभास है वह शब्द से रहित है । स्वसंवेदन प्रत्यक्ष भी शब्द को विषय नहीं करता है।
उपर्युक्त यह सब दोषारोपण देखकर शब्दाद्वैतवादी कहता है कि शब्द का संबंध पदार्थ से है अर्थात् सभी चेतनाचेतन पदार्थ शब्द से अनुविद्ध हैं । इस पर भी यह प्रश्न होता है कि पदार्थ का स्थान और शब्द का स्थान एक है क्या? यदि एक कहो तो बहुत बड़ी आपत्ति आ जावेगी। अग्नि, जल आदि पदार्थ और शब्द एक मेक होने से अग्नि शब्द के सुनते कान जल जावेंगे एवं जल शब्द से कान में पानी भर जावेगा तब तो कान से कुछ सुनाई भी नहीं देगा, किन्तु ऐसा तो होता नहीं है अतः शब्द और पदार्थ का तादात्म्य संबंध नहीं है क्योंकि पदार्थ और शब्द भिन्न २ इन्द्रियों से ग्रहण किये जाते हैं शब्द केवल कर्णेन्द्रिय गम्य है।
दूसरी बात यह है कि यदि आप जगत् को शब्द रूप मानते हो तब तो यह भी प्रश्न होता है कि यह शब्दब्रह्म जगत् रूप परिणत होता है तब अपने स्वभाव को छोड़कर होता है या बिना छोड़े ? यदि छोड़ कर कहो तो शब्दब्रह्म अनादि निधन कहाँ रहा ? यदि शब्द अपने स्वभाव को छोड़े बिना भी जगत् रूप होता है तब तो बहिरे को, एकेन्द्रिय आदि को, और तो क्या पत्थर को भी सुनाई देना चाहिये क्योंकि सभी चेतन अचेतन पदार्थ शब्द से तन्मय ही तो हैं, किन्तु ऐसा दिखता तो है नहीं। पुनरपि एक प्रश्न उठता है कि आपके शब्द ब्रह्म से यह जगत् रूप पर्याय भिन्न है या अभिन्न ? प्रथम पक्ष लेवो तो अद्वैतवाद समाप्त हो जाता है। यदि द्वितीय पक्ष लेवो तो ये नानाभेद क्यों दिखाई देते हैं ?
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