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तीर्थच्छेद संप्रदाय वालों का खंडन ]
प्रथम परिच्छेद
[ २३१ स्तीर्थच्छेदसम्प्रदायास्तथा तत्त्वोपप्लववादिनोपि, तैरेकस्यापि प्रमाणस्यानभिधानात्, 'नकप्रमाणवादिनो नेकप्रमाणवादिन इति व्याख्यानात् । तथा सर्वमाप्तागमपदार्थ'जातमवगतमिच्छन्तोप्यनेकप्रमाणवादिनो' वैनयिकास्तीर्थच्छेदसम्प्रदायाः । तेषामशेषाणामाप्तता' नास्ति, परस्परविरुद्धयोरर्थयोरभिधानात् ।
भावार्थ-विश्व में दो प्रकार के दर्शन प्रचलित हैं। १. आस्तिक २. नास्तिक । आत्मा के अस्तित्व को मानने वाले सभी आस्तिक कहलाते हैं एवं जो आत्मा का अस्तित्व तथा परलोक आदि नहीं मानते हैं वे नास्तिक कहलाते हैं। इस व्याख्या से चार्वाक भूतचतुष्टयवादी होने से आत्मा का अस्तित्व नहीं मानते हैं अतः नास्तिक हैं तथा तत्त्वोपप्लववादी तो आत्मा, परमात्मा, स्वयं की आत्मा एवं जड़ पदार्थ आदि किसी का भी अस्तित्व नहीं मानते हैं अतः ये भी नास्तिक हैं इन दोनों के यहाँ सर्वज्ञ मानने का प्रश्न ही नहीं उठता है किन्तु वैदिक संप्रदाय में एक मीमांसक संप्रदाय वाले हैं जो किसी भी पुरुष को अतीन्द्रिय सर्वज्ञ मानने को तैयार नहीं हैं। ये तीनों सर्वथा ही सर्वज्ञ के अभाव को करने वाले हैं और बौद्ध सांख्य एवं वैशेषिक ये लोग सर्वज्ञ सर्वदर्शी तो मानते हैं किन्तु इनकी मान्यतायें सुघटित नहीं हैं, इनके द्वारा मान्य बुद्ध भगवान् महेश्वर आदि सच्चे सर्वज्ञ नहीं हो सकते हैं । इसलिए इन सभी के सिद्धांतधर्मतीर्थ का विनाश करने वाले होने से ये सभी लोग तीर्थच्छेद संप्रदाय वाले कहे गये हैं। ब्रह्माद्वैतवादी आदि सभी अद्वैतवादी एक अद्वैत रूप ही जगत् मानते हैं कोई ब्रह्मरूप, कोई शब्दरूप एवं कोई ज्ञानरूप इत्यादि । इसलिये ये सभी अद्वैतवादी एक प्रमाणवादी कहलाते हैं इसी प्रकार चार्वाक भी एक प्रत्यक्ष प्रमाण ही मानता है क्योंकि उसके यहाँ पांच इन्द्रियों के ज्ञान के सिवाय कोई बात प्रमाणिक है ही नहीं अत: यह चार्वाक भी एक प्रमाणवादी है।
बौद्ध, सांख्य, मीमांसक आदि दो, तीन, चार आदि प्रमाण मानते हैं इसलिए ये सभी अनेक प्रमाणवादी हैं । यहाँ पर तत्त्वोपप्लववादी को अनेक प्रमाणवादी कहने का मतलब यह है कि वह एक भी प्रमाण नहीं मानता है इसलिए व्याकरण के नञ् समास के अनुसार ही यह व्याख्या है जैसे "न उदरं यस्या असौ अनुदरा कन्या" जिसके उदर नहीं है वह अनुदरा है मतलब जिसका पेट छोटा है यहाँ पर नञ् का अर्थ किंचित् रूप है और ऊपर अनेक प्रमाणवादी में नञ् का अर्थ सर्वथा निषेध रूप है । अतः 'अनेक" शब्द का बहुत वाची अर्थ न “एक भी नहीं" ऐसा अर्थ हो जाता है । यह लक्षण मात्र तत्त्वोपप्लववादी के लिये ही घटित करना है।
1 तथापि तत्त्वोपप्लववादिनामनेकप्रमाणत्वं कथमित्यत आह नकेति । प्रसज्यप्रतिषेधोत्र। 2 समहम्। 3 अभ्यूपगतं । सर्व विद्यते सर्वसमीचीनमस्तीति भावः। (ब्या० प्र०) 4 अभ्युपगतम्। स्वीकृतमित्यर्थः। 5 सत्यता संवादकता।
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