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अष्टसहली
[ कारिका ३
दिति चेन्न, तदवगमस्यापि संवादान्तरप्रात्माण्यनिर्णयेनवस्थाप्रसङ्गात् । 'अथार्थक्रियास्थितिलक्षणाविसंवादज्ञानस्याभ्यासदशायां स्वतः प्रामाण्यसिद्धेरदोषः ।
[ अभ्यासदशायां अविसंवादज्ञानस्य प्रमाणता स्वतः सिद्धयति इति बौद्धः मन्यते तस्य निराकरणं ]
कोयमभ्यासो नाम ? भूयः संवेदने' संवादानुभवनमिति चेत् 'तज्जातीयेऽतज्जातीये' वा ? तत्रातज्जातीये' न तावदेकत्र संवेदने भूयः संवादानुभवनं संभवति 'क्षणिकवादिनः ।
संवादी रूप से प्रमाण की प्रमाणता मानी जाती है। तो उस पक्ष को बौद्ध के द्वारा स्वीकार कर लेने पर तत्त्वोपप्लववादी कहते हैं कि यह मान्यता भी ठीक नहीं है क्योंकि अर्थक्रिया का सद्भाव लक्षण (अर्थक्रिया को करने में समर्थ) जो अविसंवाद है वह ज्ञान की प्रमाणता को व्यवस्थापित करने में हेतु नहीं हो सकता है क्योंकि प्रश्न उठता है कि वह अर्थक्रिया लक्षण अविसंवाद अज्ञात रूप-नहीं जाना गया रूप है या ज्ञात-जाना गया रूप है ? यदि कहो कि अविसंवाद नहीं जाना गया है तब तो वह ज्ञान की प्रमाणता को सिद्ध नहीं कर सकेगा।
यदि कहो कि वह अविसंवाद अवगत (ज्ञात) होकर प्रमाणता की व्यवस्था में कारण है तब तो यह बताओ कि उस अवगत अविसंवाद ज्ञान की प्रमाणता किससे है ? यदि कहो भिन्न संवाद से है तब तो उस अवगम (अविसंवादज्ञान) की भी भिन्न संवाद से प्रमाणता निश्चित होने से अनवस्था आ जाती है।
बौद्ध–अर्थ क्रिया के सद्भाव रूप अविसंवाद ज्ञान की अभ्यास दशा में स्वतः प्रमाणता सिद्ध है अतः कोई दोष नहीं है। [ अभ्यास दशा में अविसंवाद ज्ञान की प्रमाणता स्वतः सिद्ध है इस प्रकार से बौद्ध मानता है उसका निराकरण ]
शून्यवादी-तब तो आप बौद्धों के यहाँ यह अभ्यास क्या बला है ? यदि आप कहें कि ज्ञान में पुनः पुनः संवाद का अनुभव होना अभ्यास है तब तो वह संवाद तज्जातीय सत्यरूप सामान्य ज्ञान में होता है या अतज्जातीय रूप विशेष में? उसमें अतज्जातीय ज्ञान में पुनः पुनः संवाद का अनुभव मानने पर तो स्वलक्षण रूप एक क्षणवर्ती एक संवेदन में पुनः पुनः संवाद का अनुभव संभव ही नहीं है क्योंकि आप क्षणिक वादियों के यहाँ तो ज्ञान उत्पन्न होते ही नष्ट हो जाता है अर्थात् आपके वहाँ एक क्षणवर्ती पर्याय को स्वलक्षण विशेष कहा है उसे जानकर ज्ञान उसी क्षण में समाप्त हो जाता है, क्योंकि वह वस्तु ही क्षणिक है पुनः उसमें बार-बार अनुभव कैसे बनेगा ?
बौद्ध-संतान की अपेक्षा से पुनः-पुन: अनुभव संभव है। अर्थात् बौद्ध वासना-संस्कार को सन्तान कहता है और वासना की अपेक्षा से तो पुनः-पुन: अनुभव शक्य है।
शन्यवादी-ऐसा भी नहीं कहना, क्योंकि आपने तो स्वयं ही सन्तान को अवस्तु माना है अतः
1 बौद्धः। 2 अर्थक्रियास्थितिलक्षणश्चासावविसंवादश्च । (ब्या० प्र०) 3 तत्त्वोपप्लववादी। 4 जायमाने । (ब्या० प्र०) 5 सत्यरूपे सामान्यरूपे। 6 विशेषरूपे। 7 संवेदने। 8 स्वलक्षणे । 9 उत्पत्रविनष्टत्वात् ।
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