________________
१४८ ]
अष्टसहस्री
[ कारिका ३
ङ्गात् । ' स्वरूपमपि शब्द : 2 श्रोत्रेण गमयति ' 'बहिरर्थवत् स्वव्यापारेण । ' ततस्तस्य ' प्रतिपादक इति चेन्न -- रूपादीनामपि स्वरूपप्रतिपादकत्वप्रसङ्गात् । "तेपि हि स्वं स्वं स्वभावं "चक्षुरादिभिर्गमयन्ति -- " चक्षुरादीनां स्वातंत्र्येण " तत्र प्रवर्त्तनात् तत्प्रयोज्यत्वात् तेषां च रूपादीनां निमित्तभावेन " प्रयोजकत्वात् स्वयमधीयानानां " कारीषाग्न्यादिवत् । 17 अथ रूपादयः प्रकाश्या एव ततोर्थान्तरभूतानां चक्षुरादीनां प्रकाशकादीनां सद्भावादिति मतम् । तथैव " शब्दस्वरूपं प्रकाश्यमस्तु - ततोन्यस्य श्रोत्रस्य प्रकाशकस्य भावात् ।
18
भाट्ट - शब्द अपने स्वरूप को भी श्रोत्र-कर्णेन्द्रिय से बता देता है जैसे कि वह अपने व्यापार से बाह्य पदार्थों को बताता है । इसलिए वह स्वरूप का प्रतिपादक भी है अर्थात् यह शब्द स्वरूप की अपेक्षा से प्रतिपाद्य बन जाता है और बाह्य अर्थ की अपेक्षा से प्रतिपादक बन जाता है । एवं जैसे शब्द स्वव्यापार से बाह्य पदार्थ का ज्ञान कराता है वैसे ही शब्द श्रोत्रेन्द्रिय से पुरुष के स्वरूप को बतला देता है यह भी कैसे ? ऐसा प्रश्न होने पर बतलाते हैं कि पुरुष शब्द के स्वरूप को प्राप्त करता है । और श्रोत्रेन्द्रिय उस पुरुष को प्रेरित करती है पुनः शब्द उस श्रोत्रेन्द्रिय को प्रेरित करता है । इस प्रकार से गम् धातु से प्रेरणार्थ में णिच् प्रत्यय होकर " गमयति" बनता है। जिसका ऐसा अर्थ समझना चाहिये ।
जैन - ऐसा नहीं कहना । अन्यथा रूपादि भी अपने स्वरूप के प्रतिपादक हो जायेंगे, पुनः वे रूपादि भी भावना बन जावेगे । वे रूपादि भी अपने-अपने स्वभाव को चक्षु आदि इन्द्रियों के द्वारा पुरुष को बता देते हैं क्योंकि वे चक्षु आदि इन्द्रियाँ स्वतंत्र रूप से उन रूपादि विषयों में प्रवृत्ति करती हैं । वे रूपादि प्रयोज्य है और चक्षु आदि-निमित्त भाव से प्रयोजक हैं जैसे कि स्वयं पढ़ने वालों को कारोषादि (कंडे) की अग्नि निमित्त मात्र से प्रयोजक है मुख्य रूप से नहीं ।
---
भाट्ट - वे रूपादि प्रकाश्य - प्रकाशित होने योग्य ही हैं क्योंकि उनसे भिन्न चक्षु आदि इन्द्रियाँ प्रकाशक रूप से विद्यमान हैं ।
जैन - उसी प्रकार से शब्द का स्वरूप भी प्रकाश्य ही होवे क्योंकि उनसे भिन्न श्रोत्रेन्द्रियाँ प्रकाशक विद्यमान हैं।
1 भाट्ट | 2 स्वरूपमपेक्ष्य प्रतिपाद्यत्वं बहिरर्थमपेक्ष्य प्रतिपादकत्वं शब्दस्येति भाव: । ( ब्या० प्र० ) 3 यथा । तथा शब्दः श्रोत्रेण पुरूषं स्वरूपं गमयति इत्यत्रापि कथमिति चेत् शब्दस्वरूपं गच्छति पुरूषस्तं पुरुषं श्रोत्रं प्रयुक्ते तच्च श्रोत्रं शब्दः प्रेरयति इति णिच् इत्यनेन प्रकारेण । पुरुषं । (ब्या० प्र० ) 4 कर्म बहिरर्थं यथा श्रोत्रेण गमयति । ( ब्या० प्र० ) 5 यथा शब्दः स्वव्यापारेण बहिरर्थं गमयति । 6 शब्द: श्रोत्रेण स्वरूपं गमयति यतः । 7 स्वरूपस्य । 8 जैनः । 9 ततो रूपादिर्भावना स्यात् । 10 रूपादयः । 11 पुरुषस्य । 12 एतदेव भावयति । 13 रूपाद्यवगमे । 14 ते रूपादयः प्रयोज्याश्चक्षुरादयः प्रयोजकाः निमित्तमात्रकृतं तत्प्रयोज्यत्वं न तु मुख्यवृत्त्या । 15 स्वस्वरूपवेदनं प्रति । 16 अधीयानादीनां इति पा० । स्वयं अध्ययनं कुर्वतां । (ब्या० प्र० ) 17 भाट्ट | 18 जैनः |
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org