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शून्यवाद ]
प्रथम परिच्छेद
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मन्तरेण वा ? प्रमाणतश्चेत्तदपि प्रमाणान्तरतः सिद्धय दित्यनवस्थानात्कुतः प्रमाणतत्त्वव्यवस्था ? यदि पुनः प्रथमं प्रमाणं द्वितीयस्य व्यवस्थापकं द्वितीयं तु प्रथमस्येष्यते तदेतरेतराश्रयणान्नकस्यापि व्यवस्था । 'स्वतः प्रमाणस्य प्रामाण्यव्यवस्थितेरयमदोष इति चेन्न--- सर्वप्रवादिनां तत्र विप्रतिपत्त्यभावप्रसङ्गात् । कुतश्चित्प्रमाणात्तद्विप्रतिपत्तिनिराकरणे तत्रापि प्रमाणान्तराद् विप्रतिपत्तिनिराकरणेन भाव्यमित्यनवस्थानमप्रतिहतप्रसरमेव । परस्परं विप्रतिपतिनिराकरणे चान्योन्यसंश्रयणं दुरुत्तरम् । प्रमाणमन्तरेण तु प्रमाणादितत्त्वं यदि सिद्धयत्तदा तदुपप्लवव्यवस्थापि तथा दुःशक्या निराकर्तुम् । स्यान्मतम् ।
प्रमाण से सिद्ध है या प्रमाण के बिना सिद्ध है ? यदि कहो कि प्रमाण से सिद्ध है तब तो वह प्रमाण भी प्रमाणांतर से सिद्ध होगा इस प्रकार से अनवस्था के आ जाने से प्रमाणतत्त्व की व्यवस्था कैसे हो सकेगी ?
__ यदि आप कहें कि प्रथम प्रमाण द्वितीय प्रमाण का व्यवस्थापक होगा और द्वितीय प्रमाण प्रथम की व्यवस्था कर देगा तब तो इतरेतराश्रय दोष आ जाने से एक की भी व्यवस्था नहीं हो सकेगी। अर्थात् प्रमाण ज्ञान सच्चा है इसको बतलाने वाला दूसरा प्रमाण आया और वह दूसरा भी सच्चा है इस बात को बतलाने वाला तीसरा इत्यादि से अनवस्था होती है और यदि दूसरे ने पहले को सच्चा सिद्ध किया एवं दूसरे को पहले ने सच्चा कहा तब तो भाई ! दोनों मित्र एक दूसरे को सच्चा कह रहे हैं, किन्तु ये दोनों सच बोलते हैं यह बात हम कैसे मान लेवें ? यदि आप कहें कि प्रमाण की प्रमाणता स्वतः ही व्यवस्थित है अतः कोई दोष नहीं है, किन्तु आप ऐसा भी नहीं कहना अन्यथा सभी प्रवादियों को भी विसंवाद का अभाव हो जावेगा अर्थात् सभी के सभी इष्ट तत्त्व स्वतः ही सिद्ध हो जावेंगे।
यदि आप कहें कि किसी एक प्रमाण से उस विसंवाद को दूर करेंगे तो वहाँ भी प्रमाणांतर से विसंवाद को दूर करने के लिये भी प्रमाण चाहिये इस तरह से अनवस्था का प्रसार बिना रोक टोक के ही हो जाता है।
एवं प्रथम का द्वितीय से और द्वितीय का प्रथम प्रमाण से विसंवाद दूर करना मानने पर तो अन्योन्याश्रय दोष आता है, उसका निवारण भी आप नहीं कर सकते हैं।
और यदि आप दूसरा पक्ष लेवो कि प्रमाण के बिना प्रमाणादि तत्त्व सिद्ध होते हैं, तब तो तत्त्वोपप्लव की व्यवस्था का निराकरण करना भी शक्य नहीं है वह प्रमाण के बिना सिद्ध है ऐसा हम ' मानते हैं।
1 (जैनपक्षमुपपाद्य तत्त्वोपप्लववादी इति चेन्नेत्यनेन खण्डयति)। 2 प्रथम द्वितीयस्य व्यवस्थापक द्वितीयं तु प्रथमस्येष्यते। 3 पर: मीमांसकादीनामभिप्रायमनूद्य दूषयति । (ब्या० प्र०) 4 जनादेः।
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