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तत्त्वोपप्लववाद ] प्रथम परिच्छेद
[ २०१ शक्यः कर्तुम् ? 'कस्यचिदपौरुषेयस्यापि च ग्रहोपरागादेः शुक्लवस्त्रादौ पीतज्ञानहेतोरुपलक्षणाद्वेदस्यापौरुषेयस्यापि मिथ्याज्ञानहेतुत्वसंभावनायां कथमिव निःशङ्क याज्ञिकानां तज्जनितवेदने प्रामाण्यनिश्चयः ? ततो नादुष्टकारकजन्यत्वेन कस्यचित्प्रमाणता । वेद अपौरुषेय हैं अतः प्रमाण हैं तब तो ग्रहोपरागादि (चंद्रमा के परिवेष आदि) भी बिना पुरुष कृत अपौरुषेय ही हैं किंतु उन उपरागादि के निमित्त से श्वेतवस्त्रादि में पीत का ज्ञान हो जाता है अतः अपौरुषेयवेद में भी मिथ्याज्ञान की संभावना हो सकती है।
विशेषार्थ-मीमांसक ज्ञान की प्रमाणता-सचाई का निर्णय कई कारणों से मानता है। निर्दोष कारणों से उत्पन्न होना और बाधा का न होना । यहाँ पर इन दो बातों पर तत्त्वोपप्लववादी ने बड़ी आपत्ति उठाई है । श्लोकवातिकालंकार में भी ग्रंथकार ने इसी विषय में स्पष्टीकरण किया है । तथाहि
अदुष्टकारणारब्धमित्येतच्च विशेषणम् ।
प्रमाणस्य न साफल्यं प्रयात्यव्यभिचारतः ॥७७॥ मीमांसक-मीमांसक ने प्रमाण के लक्षण में "निर्दोष कारणों से उत्पन्न होना" यह विशेषण दिया है, वह विशेषण उसके प्रमाण को निर्दोष सिद्ध करने में सफल नहीं हो सकता है। जो ज्ञान दुष्ट कारणों से उत्पन्न होता है उसके द्वारा स्व और अर्थ का निर्णय होना ही असंभव है, अत: विद्यानंद स्वामी प्रमाण का लक्षण "स्वार्थव्यवसायात्मक" स्व, अर्थ का निश्चायक इतना ही पर्याप्त मानते हैं, किन्तु मीमांसकों का कथन है कि
"तत्रापूर्वार्थविज्ञानं निश्चितं बाधवजितम् ।
अदुष्टकारणारब्ध प्रमाणं लोकसम्मतम् ॥" अर्थात्-जो अपूर्व अर्थ को ग्रहण करने वाला है, निश्चित है, बाधा से रहित है, निर्दोष कारणों से जन्य है और लोक सम्मत है वही प्रमाण है।
इस प्रकार की मान्यता के कहने पर तो श्री विद्यानंद स्वामी स्वयं श्लोकवार्तिक में इन सभी विशेषणों को सदोष सिद्ध करते हुये अपने सम्यग्ज्ञान के लक्षण को निर्दोष सिद्ध करते हैं।
"तत्स्वार्थव्यवसायात्म ज्ञानं मानमितीयता। लक्षणेन गतार्थत्वाद् व्यर्थमन्यद् विशेषणम् ॥७॥ गृहीतमगृहीतं वा स्वार्थं यदि व्यवस्यति ।
तन्न लोके न शास्त्रषु विजहाति प्रमाणताम् ॥७६॥" अर्थ-स्व और अर्थ को निश्चय करने वाला ज्ञान प्रमाण है इस प्रकार से इतने ही लक्षण से
1 अपौरुषेयत्वाददुष्टकारणं वेदवाक्यम् । ततस्तज्जनितवेदने प्रामाण्यनिश्चयो भविष्यतीत्यारेकायामाह। 2 विग्रहो इति पा० । विग्रहो-युद्धं, उपरागो-ग्रहो राहुग्रस्ते त्विदौ पूष्णि चन्द्रः । (ब्या० प्र०) 3 प्रतीतेः । (ब्या० प्र०) 4 वाक्यालंकारे। (ब्या० प्र०)
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