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अष्टसहस्री
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__ [ कारिका ३विषयः । 'स्वव्यापारस्तु भावकत्वलक्षणो भावनाख्यो विषयोभ्युपगम्यते इति मनागपि न “साम्यम्-तथाप्रतीत्यभावाच्च । न हि कश्चिद्वाक्यश्रवणादेवं प्रत्येति 'स्वव्यापारोनेन वाक्येन मम प्रतिपादित' इति । किं तहि ? 1°जात्यादिविशिष्टोर्थः "क्रियाख्योनेन12
हमारे यहाँ ज्ञान स्वपर को जानने वाला अनुभव से सिद्ध है अतः सैंकड़ों विकल्पों से उसमें दोषारोपण करना शक्य नहीं है। तब तो हम भाट्टों के यहाँ भी शब्द अपने व्यापार से सहित होता हुआ पुरुष के यज्ञ रूप व्यापार को भावित कराता है। इसमें भी बाधा रहित अनुभव आ रहा है अतः शब्द का व्यापार ही शब्द भावना है और वह पुरुष के व्यापार को करा देती है इत्यादि। इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि भाई ! हमारे ज्ञान में भिन्न, अभिन्न आदि रूप से दोष नहीं आते हैं क्योंकि हम अपेक्षा से ज्ञान को उसके जानने रूप व्यापार से भिन्न भी मानते हैं और अभिन्न भी मानते हैं। हमारे यहाँ ज्ञान शब्द व्याकरण से व्युत्पत्ति अर्थ में तीन प्रकार से सिद्ध होता है। यथा-कर्तरि प्रयोग में "जानातीति ज्ञानं आत्मा"। जो जानता है वह ज्ञान है इस अर्थ में ज्ञान और आत्मा अभिन्न-एक रूप हो जाते हैं "ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानं" । इस कारण साधन में जिसके द्वारा जाना जावे वह ज्ञान है ऐसा अर्थ करने से ज्ञान और आत्मा में करण और कर्त्ता की अपेक्षा से कथंचित् भेद भी हो जाता है। एवं "ज्ञप्तिमात्रं वा ज्ञानं"। कहने से जानना मात्र क्रिया ही ज्ञान है ऐसा सिद्ध हो जाता है। यहाँ पर ज्ञान को करण रूप से विवक्षित कर लेने से आपके द्वारा आरोपित दोषों का उन्मूलन हो जाता है। ज्ञान के द्वारा स्व और पर का ज्ञान होता है। मतलब 'स्व' शब्द से यहाँ ज्ञान रूप करण शक्ति से सहित आत्मा, और पर शब्द से सभी जीव-अजीव आदि पदार्थ ग्रहण किये जाते हैं। जब ज्ञान स्वपर को जानने वाला है तब वह ज्ञान संवेद्य-जानने योग्य नहीं है क्योंकि ज्ञान तो जानने वाला सिद्ध है। अतः ज्ञान करण शक्ति रूप से संवेद्य नहीं है किन्तु सवेदक है अतः हमारे यहाँ ज्ञान कथंचित् अपने से अभिन्न स्वभाव वाली आत्मा को जानता है। कथंचित् कर्ता करण में भेद की विवक्षा से अपने से भिन्न अपने स्वभाव को जानता है एवं क्रम से भिन्नाभिन्न की विवक्षा करने से सप्तभंगी के तृतीय भंग रूप-कथंचित्-भिन्न भिन्न रूप अपने आत्म स्वभाव को जानता है ।
वाक्य के द्वारा भाव्यमान -उत्पन्न कराया गया पुरुष का व्यापार उसका विषय नहीं है। किन्तु स्वव्यापार भावक-लक्षण उस शब्द का भावना-नाम का विषय है ऐसा आपने स्वीकार किया है इसलिए किंचित् भी उदाहरण में साम्य नहीं है । कारण उस प्रकार की प्रतीति नहीं आ रही है । कोई भी मनुष्य "अग्निष्टोमेन यजेत' इत्यादि शब्द के सुनने मात्र से ही इस प्रकार से नहीं समझता है कि "इस वाक्य ने मेरा व्यापार प्रतिपादित किया है" इत्यादि ।
1 तर्हि भाट्टाभिहितविषयः क इत्युक्ते आह। 2 उत्पादकत्वलक्षणः। 3 तस्य वाक्यस्य। 4 वैषम्यादित्यनेन संबंधः । (ब्या० प्र०) 5 न केवलं वैषम्यात् । (ब्या० प्र०) 6 अग्निष्टोमेन यजेतेत्यादि । 7 पुरुषव्यापारः । 8 वाक्यस्य । (ब्या० प्र०) 9 प्रकाशित । (ब्या० प्र०) 10 आदिशब्दाद् गुणद्रव्ये । 11 यजेत आलभेतेत्यादि। 12 अनेन वाक्येन ।
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