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[ कारिका ३
हन्यात्" इत्यादेरिव धर्मे प्रमाणत्वानुपपत्तेः, 'पुरुषाद्वैताभिधायिनश्च " सर्वं खल्विदं ब्रह्म"
अष्टसहस्री
वेदवाक्य " "सधनं हन्यात् " धन सहित को मारे । इत्यादि वचन के समान ही होने से धर्म में प्रमाण नहीं हैं । अर्थात् "सधनं हन्यात्" यह खारपटिक जनों का सिद्धांत है वह प्रमाण नहीं है इसका विशेष विवरण श्लोकवार्तिकालंकार में है ।
विशेषार्थ - अन्य लोगों के प्रमाण का लक्षण है कि - "तत्रापूर्वार्थविज्ञानं निश्चितं वाधवर्जितं । अदुष्टकारणारब्धं प्रमाणं लोकसंमतं ।। "
इस प्रमाण के लक्षण में "बाधा से रहित होना" "अदुष्टकारणों से उत्पन्न होना " आदि जो हेतु दिये गये हैं वे घटित नहीं होते हैं । ऐसा श्लोक वार्तिक ग्रंथ प्रथम खण्ड पेज ११४ में कहा है । यथा "खरपट मत" के शास्त्रों में लिखा है कि स्वर्ग का प्रलोभन देकर जीवित ही धनवान् को मार डालना चाहिए | एतदर्थ काशीकरवट, गंगा प्रवाह, सतीदाह आदि कुत्सित क्रियायें उनके मत में प्रकृष्ट मानी गई हैं । किन्तु हम और आप मीमांसक लोग उक्त खरपट के शास्त्रों को रागी, द्वेषी अज्ञानी वक्ता रूप दुष्टकारणों से जन्य मानते हैं अतः वे अप्रमाण हैं । "नाग्निहोत्रं स्वर्ग साधनं हिसा हेतुत्वात् सधनवधवत् । सधनवधो वा न स्वर्गसाधनस्तत एव अग्निहोत्रवत् ।” आप मीमांसक के यहाँ अग्निहोत्र-यज्ञ स्वर्ग का साधन नहीं है क्योंकि हिंसा का हेतु है जैसे कि खारपटिक मत में धनवान् का वध कर देना स्वर्ग का हेतु माना गया है । अथवा धनसहित का वध स्वर्ग को देने वाला नहीं है क्योंकि वह हिंसा
हेतु है जैसे कि अग्नि होत्र - यज्ञ । जैनाचार्य के इस कथन पर मीमांसक कहता है कि "विधिपूर्वकस्य पश्वादिवधस्य विहितानुष्ठानत्वेन हिंसाहेतुत्वाभावात् असिद्धो हेतुरिति चेत्, तर्हि विधिपूर्वकस्य सधनवधस्य खारपटिकानां विहितानुष्ठानत्वेन हिंसा हेतुत्वं मा भूदिति सधनवधात् स्वर्गो भवतीति वचनं प्रमाणमस्तु" । अर्थात् क्रियाकाण्ड विधान करने वाले शास्त्रों में लिखी गई वैदिक विधि के अनुसार किया गया पशुओं का वध तो शास्त्रोक्त क्रियाओं का ही अनुष्ठान है वह लौकिक हिंसा का कारण होकर पाप को पैदा करने वाला नहीं है अतः आप जैनों का "हिंसा हेतुत्वात्" हेतु असिद्ध है। हमारे अग्निहोत्र रूप पक्ष में नहीं जाता है । यदि मीमांसक का ऐसा कहना है तो इस पर पुन: जैन कहते हैं कि खरपट मतानुसारियों ने धनवान् को विधिवत् मार डालने का विधान भी शास्त्रोक्त क्रिया का अनुष्ठान माना अतः विधिवत् धनी का मार डालना भी हिंसा का हेतु न होवे और पुनः सधनवध के प्रतिपादक शास्त्र भी आप मीमांसकों को प्रमाणीक मानना चाहिए ।
अनेक पुरुषों का ऐसा भी कहना है कि संसार में प्रायः धनवान पुरुष ही अधिक अनर्थ करते हैं हिंसा झूठ आदि पाप, जुआ, मांस आदि दुर्व्यसन करते हैं, विधवा अनाथ, दीन गरीब आदि को दुःखी करते हैं, धन के मद में अंधे होकर अनेकों कुकृत्य कर डालते हैं अतः उनके मार देने से लोक
1 लौकिकवाक्यस्य । ( ब्या० प्र० ) 2 खारपटिकमित्यस्यायं प्रसंग: श्लोकवार्तिकालंकारे दृष्टव्यः । ( व्या० प्र० ) 3 कार्ये दूषण | ( ब्या० प्र०) 4 [जैनो कत्रापि बाधवर्जितत्वं प्रदर्शयितुं हेत्वन्तरमाह ] ।
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