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भावनावाद ] प्रथम परिच्छेद
[ १३७ मतम् । विकल्पविज्ञानेपि न वास्तवः सामान्याकारः-तस्याऽनाद्यविद्योपपादितत्वात् । संवेदनस्वरूपस्यैवासाधारणस्य परमार्थसत्त्वादिति चेन्न--विपर्ययस्यापि कल्पयितुं शक्यत्वात् । संवेदनेपि नासाधारणाकारः पारमार्थिकः-तस्यानाद्यविद्योदयनिबन्धनत्वात् संवेदनसामान्यस्यैव वास्तवत्वादिति 'वदतोऽन्यस्यापि निवारयितुमशक्यत्वात् । 'न वस्तुभूतं संवित्सामान्यम्0-"वृत्तिविकल्पानवस्थादिदोषानुषङ्गात् बहिरर्थसामान्यवत्' इति चेत्तहि 4 न संविद्विशेषः परमार्थः सन्--"विचार्यमाणा योगाब्दहिरर्थविशेष"वदित्यप्यन्यो ब्रूयात् । तथा च 1°सत्याऽऽश्रयासिद्धो हेतुरित्युभयत्र समानं दूषणम् । साध्य साधनविकलं
क्योंकि वे सामान्याकार अनादि अविद्या से उपकल्पित हैं। किन्तु असाधारण संवेदन स्वरूप ही परमार्थ सत् है।
भाट्ट-ऐसा नहीं कहना । क्योंकि इससे विपरीत कल्पित करना भी शक्य है। संवेदन में भी असाधारणाकार पारमार्थिक नहीं हैं वे अनादि अविद्या के निमित्त से ही हैं, अतः संवेदन सामान्य निविकल्प ज्ञान ही वास्तविक है ऐसा कहने वाले हम भाट्ट का भी आप सौगत निवारण नहीं कर सकते हैं ।
सौगत-संवित् (ज्ञान) सामान्य वस्तुभूत नहीं है । क्योंकि वृत्ति, विकल्प अनवस्था आदि अनेक दोषों का प्रसंग आ जाता है। जैसे कि बाह्यार्थ सामान्य को स्वीकार करने पर अनेक दोष आ जाते हैं।
भाट्ट-तब तो संवित् विशेष भी परमार्थ सत् सिद्ध नहीं होगा क्योंकि विचार करने पर बाह्य पदार्थ के समान उसका भी अभाव ही सिद्ध होगा। इस प्रकार से संवित्सामान्यवादी भी कह सकते हैं और ऐसा कहने पर तो आपका हेतु आश्रयासिद्ध हो जाता है। इस प्रकार से संवित्सामान्य और संविविशेष दोनों में दूषण समान ही हैं । और हमारा जो "बहिरर्थवत्" दृष्टांत है वह साधन शून्य है ऐसा भी आप नहीं कह सकते हैं क्योंकि वह भी समान ही है ।
1 सौत्रान्तिकवादिमतम् । 2 सौगतः प्राह । 3 घटपटाद्याकारः। 4 विशेषस्य । (ब्या० प्र०) 5 भाट्टः । 6 निर्विकल्पकज्ञानं । 7 भाट्टस्य । 8 सौगतेनेति शेषः। 9 सौगतः। 10 ईप् । (ब्या० प्र०) 11 एकस्यानेकवृत्तिर्नेत्यादिकारिकाव्यास्याने चतुर्थपरिच्छेदे निरूपितत्वात् । 12 सामान्यस्य व्यक्तिरहितप्रदेशे सत्त्वं । (ब्या० प्र०) 13 घटादि । (ब्या० प्र०) 14 भाट्टः। 15 ता । (ब्या० प्र०) 16 यद्यसत्सर्वथा कार्यमित्यादिकारिकाव्याख्याने ततीयपरिच्छेदे विचार्यमाणस्यायोगात् । 17 भवन्मते यथा बहिरर्थः परमार्थसन्न भवति । (ब्या० प्र०) 18 संविसामान्यवादी भाट्टः। 19 संवित्सामान्य प्रमाणसिद्धमसिद्धं वा ? प्रमाण सिद्धं चेन्न-वृत्तिविकल्पानवस्थादिदोषानुषङ्गात् । अप्रमाणसिद्धं चेत्तहि आश्रयासिद्धो हेतुः। एवं संविद्विशेषः प्रमाणसिद्धोऽप्रमाणसिद्धोवेत्यत्रापि योज्यम् । 20 संवित्सामान्यसंविद्विशेषयोः । 21 सौगत आह—हे भट्ट बहिरर्थविशेषवदिति त्वयोक्तो दृष्टान्तः साध्यसाधनविकल इति । भट्टो वदति-इत्यपि सौगतेन न चोद्यम्-तवापि बहिरर्थसामान्यवदिति दृष्टान्ते तुल्यदूषणत्वात् ।
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