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अष्टसहस्री
[ कारिका ३संवेदनेपि तत्प्रसङ्गात् । 'ततो नैतत्साधु----
बुद्धिरेवातदाकारा तत उत्पद्यते यदा। तदास्पष्टप्रतीभासव्यवहारो जगन्मतः॥ इति----"चन्द्रद्वयादिप्रतिभासे' तद्व्यवहारप्रसक्तेः । न च मीमांसकानां सामान्यं विशेषेभ्यो भिन्नमेव वाऽभिन्नमेव वा----तस्य 11कथञ्चित्ततो भिन्नाभिन्नात्मनः प्रतीते: । प्रमाणसिद्धे च सामान्यविशेषात्मनिजात्यन्तरे वस्तुनि तद्ग्राहिणो ज्ञानस्य सामान्यविशेषात्मकत्वोपपत्तेर्न काचिद्बुद्धिरविशेषाकारा सर्वथास्ति, नाप्यसामान्याकारा सर्वदोभयाकारायास्तस्याः प्रतीतेः । न चाकारा13 बुद्धिः----तस्या निराकारत्वात् तत्र प्रतिभासमानस्याकारस्यार्थधर्मत्वात् । न15 च16 निराकारत्वे संवेदनस्य प्रतिकर्मव्यवस्था ततो विरुध्यते----
एवं अस्पष्ट संवेदन-सविकल्पज्ञान निविषयक ही है ऐसा भी आप नहीं कह सकते, क्योंकि स्पष्ट संवेदन-निर्विकल्प संवेदन के समान वह अस्पष्ट संवेदन भी संवादक है-सत्य है ।
यदि अस्पष्ट प्रतिभास (अविशदज्ञान) में कहीं पर विसंवाद दिख जाने से सर्वत्र विसंवाद स्वीकार करोगे तब तो स्पष्ट संवेदन में भी वही प्रसंग आ जावेगा । अतः अस्पष्ट संवेदन भी विषय को ग्रहण करने वाला है निविषयक नहीं है यह बात सिद्ध हो गई। अतएव आपका यह कथन भी सम्यक् नहीं है कि
श्लोकार्थ-अतदाकार (अस्वलक्षणाकार, अविशेषाकार, बहिःस्वलक्षणाकार) बुद्धि ही जब स्वलक्षण अर्थ से उत्पन्न होती है तभी जगत्मान्य अस्पष्ट प्रतिभास व्यवहार होता है। इस प्रकार से तो तैमिरिक रोग वाले के चन्द्रद्वयादि के प्रतिभास में वह व्यवहार हो जावेगा।
मीमांसकों के यहाँ स्थाणु पुरुषादि विशेषों से सामान्य सर्वथा भिन्न ही हो अथवा अभिन्न ही हो, ऐसा तो है नहीं क्योंकि वह सामान्य उन विशेषों से कथंचित् भिन्नाभिन्नात्मक रूप से ही प्रतीति में आ रहा है।
इस प्रकार से सामान्य विशेषात्मक, जात्यंतर वस्तु की प्रमाण से सिद्धि हो जाने पर उसको ग्रहण करने वाला ज्ञान भी सामान्य विशेषात्मक सिद्ध हो जाता है। अत: विशेषाकार से व्यावृत्त अविशेषाकार का अभाव है।
1 अस्पष्टसंवेदनं सविषयं यतः। 2 वक्ष्यमाणम् । 3 अस्वलक्षणाकारा, अविशेषाकारा, बहिःस्वलक्षणाकारा । 4 स्वलक्षणलक्षणादर्थात् । 5 यदा तु प्रतिभासते तदेत्यादि पाठान्तरम् । 6 एकस्माच्चन्द्रादुत्पन्ना अतदाकारा चंद्रद्वयाकाररूपा बुद्धिरस्पष्टप्रतिभासा भवतु । न च तथास्ति। (ब्या० प्र०) 7 जाततैमिरिकस्य। 8 तहि भवतां मीमांसकानां भेदाभेदे सतीदं दूषणं समानं तत्र किम् ? इति प्रश्ने आह । १ स्थाणुपुरुषादिभ्यः । 10 अत एवास्पष्टता लक्षणं निविषयलक्षणं दूषणं न। 11 अशक्यविवेचनं । (ब्या० प्र०) 12 विशेषाकाराद्वयावृत्ताविशेषाकारा। 13 सौगताभ्युपगताद्रप्यसहिता न भवतीत्यर्थः। 14 विषये। बुद्धनिराकारत्वं तहि आकारः कथं प्रतिभासते इत्युक्ते आह । 15 हे सौगत । 16 बौद्धाभिप्रायमनुद्य दूषयति । (ब्या० प्र०) 17 प्रतिनियतविषयः । (ब्या० प्र०)
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