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नियोगवाद ] प्रथम परिच्छेद
[ ३१ [ अत्रत्यात् भाट्ट: नियोगं निराकरोति ] 'सोयमेकादशप्रकारोपि नियोगो विचार्यमाणो बाध्यते ।
प्रमाणाद्यष्टविकल्पानतिक्रमात् । तदुक्तम् :
प्रमाणं कि नियोगः स्यात् प्रमेयमथवा पुनः । उभयेन विहीनो वा द्वयरूपोथवा पुनः ॥१॥ शब्दव्यापाररूपो वा व्यापारः पुरुषस्य वा । द्वयव्यापाररूपो वा द्वयाव्यापार एव वा ॥२॥
[ नियोगस्य प्रमाणप्रमेयादिरूपाभ्युपगमे दोषारोपणम् ] (१) 'तत्रैकादशभेदोपि नियोगो यदि प्रमाणं तदा विधिरेव' वाक्यार्थ इति वेदान्तवादप्रवेशः प्रभाकरस्य ात्, प्रमाणस्य चिदात्मकत्वात्', चिदात्मनः प्रतिभासमात्रत्वात्,
[ एवं कोई कहे कि यदि पुरुष ही नियोग है तब तो वह नित्य है साध्य रूप कैसे होगा? इस पर समाधान ]
__ कार्य की सिद्धि हो जाने पर उस साध्य-कार्य से विशिष्ट पुरुष ही उस समय साधित हो जाता है । इस प्रकार पुरुष ही वेदवाक्य का अर्थ है ।।१७।।
किन्तु यह ११ प्रकार का नियोगवाद भी विचार करने पर प्रमाण प्रमेयादि वक्ष्यमाण आठ विकल्पों से पार नहीं पा सकने के कारण बाधित हो जाता है।
[ इस प्रकार से अब विधिवाद का आश्रय लेकर भावनावादी भाट्ट प्रभाकर
__सम्बन्धी नियोगवाद को दूषित करते हैं। ] रविगुप्त नाम के आचार्य ने कहा भी है
श्लोकार्थ-यह आप प्रभाकरवादी का नियोग प्रमाण रूप है या प्रमेयरूप है, दोनों से रहित है या उभयरूप है, शब्द-व्यापार रूप है अथवा पुरुष के व्यापार रूप, दोनों के व्यापार रूप है या दोनों के व्यापार से रहित है ? ॥
[ नियोग को प्रमाण, प्रमेयादि रूप मानने में दोषारोपण ] इन आठ प्रकार के विकल्पों में से यदि पहला विकल्प लेवें कि उपर्युक्त ग्यारह प्रकार का नियोग भी प्रमाण है, तब तो विधि ही वाक्य का अर्थ सिद्ध हो जावेगी, पुन: आप नियोगवादी प्रभाकर का वेदांतवाद में प्रवेश हो जाता है क्योंकि प्रमाण तो चिदात्मक है एवं चिदात्मा प्रतिभास मात्र है तथा वह प्रतिभास परब्रह्मस्वरूप ही है। उस प्रतिभास मात्र से पृथक् विधि कार्य-कर्तव्य रूप से
1 अथ विधिवादमाश्रित्य भट्टः प्राभाकरमतसम्बन्धिनं नियोगवादं दूषयति । 2 रविगुप्तेन । 3 भाट्टः प्राभाकरं प्रतिपृच्छति। 4 वाङ्मयमात्रकथनो ब्यापारः। 5 अष्टप्रकारविकल्पमध्ये । 6 प्रथमः प्रमाणस्वरूपो विकल्पः । 7 कर्तव्यार्थोपदेशो विधिः । ब्रह्म। 8 नियोगवादिनः। 9 अत्र प्रमाणस्याचिदात्मकत्वशङ्कायां तस्याचिदात्मकत्वे प्रमाणत्वाघटनादन्यत्रोपचारादित्यग्रे वक्ष्यमाणमूत्तरं द्रष्टव्यम् ।
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