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प्रथम परिच्छेद
नियोगवाद ]
[ ४१ प्रत्यक्षादिविरुद्धं तथा नियोक्तृनियोग तद्विषयादि भेदपरिकल्पनमपि, सर्वप्रमाणानां 'विधि विषयता व्यवस्थापनेन' तद्वाधकत्वोपपत्तेः । यदि पुनरप्रवर्तकस्वभावः' शब्दनियोगस्तदा सिद्ध एव तस्य प्रवृत्तिहेतुत्वायोगः । स च वाक्यार्थत्वाभावं साधयति ।
अर्थात् प्रमाण चेतन रूप है और विधि ब्रह्म भी चेतन रूप है । अतः विधि में ही सभी प्रमाण घटित हो जाते हैं, किन्तु नियोग में घटित नहीं होते हैं । इसलिये नियोग बाधित हो जाता है क्योंकि जब सभी प्रमाण विधि-परब्रह्म में अंतर्भूत हो जाते हैं तब यह नियोक्ता है, यह नियोग है इत्यादि भेद कल्पना प्रत्यक्षादि से ही विरुद्ध हो जाती है।
पुनः यदि द्वितीय पक्ष लेवो कि शब्द नियोग अप्रवर्तक स्वभाव वाला है तब तो वह शब्द नियोग प्रवृत्ति हेतुक नहीं है अतः उसमें प्रवृत्ति का अभाव सिद्ध ही है । वह शब्दनियोग उपरोक्त विधि से सिद्ध होता हुआ वेदवाक्य के अर्थ के अभाव को सिद्ध करता है।
भावार्थ-यहाँ पर भाट्ट विधिवाद का आश्रय लेकर प्रभाकरों से प्रश्न करते हैं कि आपका नियोग प्रवृत्ति करा देने रूप स्वभाव वाला है या प्रवृत्ति नहीं कराने रूप ? यदि प्रथम पक्ष लेवो तो वह नियोग जैसे आप प्रभाकरों को यज्ञादि कर्म में प्रवृत्ति कराता है वैसे ही बौद्धों को भी क्यों नहीं कराता है ? क्योंकि यदि अग्नि का स्वभाव जलाने का है तो वह पक्षपात रहित काष्ठ, वस्त्र, मूर्ख के शरीर, पंडित के शरीर, रत्न, तृण आदि सभी को भस्म कर देती है। यदि आप कहें कि बौद्ध मिथ्या बुद्धि वाले हैं अतः उन्हें वेदवाक्य प्रवृत्ति नहीं करा सकते हैं जैसे कि सुवर्ण, अभ्रक आदि को अग्नि नहीं भी जलाती है तब तो हम ऐसा भी कह सकते हैं कि आप प्रभाकर विपरीत बुद्धि वाले हैं अतः वेदवाक्य के अर्थ नियोग से अपने आपको यज्ञकार्य में नियुक्त होना अर्थ मान लेते हैं और कर्मकांडों में प्रवृत्ति भी करते हैं किन्तु बौद्धादि विपरीत बुद्धि वाले नहीं हैं अतः वे नियोग को प्रवृति कराने वाला नहीं मानते हैं एवं उसके अनुकूल यज्ञादि में प्रवृत्ति भी नहीं करते हैं। यह हमारा कथन भी आप किसी तरह से बाधित नहीं कर सकते हैं । यदि आप बौद्ध चार्वाकादि के मतों को बाधित कहें तो जैसे उनके मत प्रत्यक्षादि से बाधित हैं वैसे ही आपका नियोग पक्ष भी प्रत्यक्षादि प्रमाणों से बाधित ही है क्योंकि
1 नियोगकृद्-यज्ञकृद्-यज्ञकर्ता। अयं यज्ञकर्तायं नियोग इदं फलमिति भेदापादनं प्रत्यक्षादिप्रमाणाद्विरुद्धं मतभेदः साधयितुं न शक्यते। 2 वेदवाक्य। 3 आदिशब्दात् पुरुषफले । "4 विधिमध्यपतितत्वव्यवस्थापनेन । 5 प्रमाणं चेतनं विधिश्चेतनो विधिमध्ये सर्वाणि प्रमाणानि घटते न च नियोगे (ब्या० प्र०)। 6 व्यवस्थापने इति पा० । सति यदा सर्वेषां प्रमाणानां विधौ परमब्रह्मणिअंतर्भावे नियोक्त नियोगादिभेदकल्पनं प्रत्यक्षादिविरुद्धं भवतीति भावः । (ब्या० प्र०)। 7 प्रत्यक्षादिविरुद्धमिति सम्बन्धः। 8 तस्य नियोगस्य बाधकम्पपद्यते यतः। 9 अग्निष्टोमादिवाक्यनिबंधनः (ब्या० प्र०)। 10 शब्दनियोगस्य । 11 शब्दनियोग: सिद्धः सन् ।
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