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[ कारिका -
६६ [
अष्टसहस्री सकृदुभयप्रतिषेधे तु कथञ्चित्सदसत्त्वविधानान्मतान्तरानुषङ्गात् कुतो विधिरेव वाक्यार्थः ।
[ विधेः प्रवर्तकादिस्वभावस्वीकारे हानिः ] किञ्च विधिः प्रवर्तकस्वभावो वा स्यादप्रवर्तकस्वभावो वा ? प्रवर्तकस्वभावश्चेद्वेदान्तवादिनामिव ताथागतादीनामपि प्रवर्तकः स्यात् । तेषां 'विपर्यासान्न प्रवर्तक इति चेत्तत एव वेदान्तवादिनामप्रवर्तक इत्यपि शक्येत । सौगतादीनामेव विपर्यासोऽप्रवर्तमानानां, न पुनः प्रवर्त्तमानानां विधिवादिनामित्यप्रामाणिकमेवेष्टम्'–उभयेषां समानाक्षेपसमाधानत्वात् । यदि पुनरप्रवर्तकस्वभाव एव विधिस्तदा कथं वाक्यार्थः स्यान्नियोगवत् ।
है, सर्वथा सत्त्व का प्रतिषेध करने पर सर्वथा असत्त्व की ही विधि हो जावेगी, अथवा सर्वथा असत्त्व का निषेध करने पर सत्त्व का विधान अवश्यंभावी हो जावेगा, और एक साथ दोनों का प्रतिषेध करने से कथंचित् सत्त्व असत्त्व का विधान हो जाने से मतांतर--स्याद्वाद के आश्रय का प्रसंग आ जावेगा। पुनः विधि ही वेदवाक्य का अर्थ है यह बात कैसे सिद्ध हो सकेगी?
[ विधि को प्रवर्तक स्वभाव या अप्रवर्तक स्वभाव मानने में दोष ] दूसरी तरह से भी प्रश्न होंगे कि विधि प्रवर्तक स्वभाव है या अप्रवर्तक स्वभाव ? यदि प्रवर्तक स्वभाव मानो तब तो वह विधि आप वेदांतवादियों के समान बौद्धा दिकों के लिये भी प्रवर्तक स्वभाव हो जावेगी क्योंकि वह सर्वथा ही प्रवर्तक स्वभाव वाली है । यदि कहो कि बौद्धादिकों को प्रवर्तक नहीं होती है क्योंकि वे विपर्यास रूप-विपरीत बुद्धि वाले हैं तब तो विपर्यास होने से हो वेदांतवादियों को भी प्रवर्तक नहीं होगी, ऐसा भी हम कह सकते हैं। अर्थात् यदि विधि प्रवृत्ति कराने रूप स्वभाव वाली है तब तो आपको और बौद्धों को, दोनों को ही प्रवर्तक होवे अथवा किसी को भी प्रवर्तक न होवे । एक को प्रवर्तक और एक को अप्रवर्तक कहने से तो कथंचित्वाद आ जाता है। यदि आप कहो कि अप्रवर्तमान-प्रवृत्ति न करने वाले सौगतादिकों को ही विपर्यास है किन्तु प्रवर्तमान विधिवादियों को नहीं है। आपका यह कथन भी अप्रमाणीक ही है आप विधिवादी और सौगत दोनों के प्रति दोष और समाधान सदृश ही लागू होते हैं । अर्थात् आप वेदवाक्य का अर्थ ब्रह्म रूप करते हैं और उसे प्रवर्तक मानते हैं तब वह परमब्रह्म आप ब्रह्माद्वैतवादी एवं अन्य सौगत आदि सभी को यज्ञादि क्रियाकाण्ड में प्रवृत्ति करावे अथवा किसी को भी प्रवृत्ति न करावे। यदि आप विधि को अप्रवर्तक स्वभाव वाली मानोगे तब तो वह विधि वेदवाक्य का अर्थ कैसे हो सकेगा, नियोगवाद के समान ।
1 जैनमता (स्याद्वाद) श्रयणात् । 2 तस्य सर्वथा प्रवर्तकत्वात् । 3 ताथागतादीनाम् । 4 प्रवर्तकस्वभावे विधावप्रवर्तकतया गमनं विपर्यासः। 5 विपर्यासादेव । 6 वक्तुमिति शेषः। 7 इति स्याद्वादी वदति ।-उभयेषां सौगतादीनां वेदान्तवादिनां चेष्टं प्रतिपादितं प्रमाणविरुद्धं भवति । कस्मात् ? सदशप्रत्यवस्थानव्यवस्थानात् ।
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