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विधिवाद ] प्रथम परिच्छेद
[ ६३ ___ पुनरपि यह विधि सत् रूप है या असत् रूप, उभयरूप है या अनुभयरूप ? सत्रूप कहो तो किसी को भी विधेय नहीं होगी, पुरुष के समान । असत् कहो तो खरविषाण के समान हो जावेगी। उभयरूप कहो कि “दृष्टव्योरेयऽमात्मा" इत्यादि से असत्रूप है और पुरुषरूप से सत्रूप है तब तो द्वैत हो जावेगा। चतुर्थ पक्ष में सत् का निषेध होने से असत् की विधि होगी अथवा सर्वथा दोनों का निषेध होने से "कथंचित् सत्त्वासत्त्व" की विधि होगी तो जैनमत में प्रविष्ट हो जावोगे।
तथैव वह विधि प्रवर्तक स्वभाव है या अप्रवर्तक स्वभाव ? यदि प्रवर्तक कहो तो बौद्धादिकों को भी विधि प्रवर्तक हो जावेगी। यदि द्वितीय पक्ष लेवो तो वेदवाक्य का अर्थ वह कैसे हो सकेगी?
इसी प्रकार वह विधि फल रहित है या फल सहित ? फल रहित कहो तो नियोग के समान प्रवर्तक नहीं होगी । पुनः वेदवाक्यों का अभ्यास भी क्यों किया जावेगा? फल सहित कहो तो फलार्थीजनों की प्रवृत्ति स्वतः सिद्ध है, पुनः विधि के अर्थ से क्या प्रयोजन सिद्ध होगा ? अतएव जिस प्रकार से वेदवाक्य का अर्थ नियोग करने में अनेक दूषण आते हैं तथैव विधि अर्थ मानने में अनेक दूषण आते हैं। यदि आप विधि अर्थ को प्रमाण कहोगे तो नियोग को भी प्रमाण मानना होगा। अतएव हमारे द्वारा मान्य "भावना" ही वेदवाक्य का अर्थ है ऐसा भाट्ट का कथन है उसका भी जैनाचार्य खंडन करेंगे।
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