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भावनावाद ]
प्रथम परिच्छेद
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भावार्थ-भाट्टों के यहाँ शब्दभावना और अर्थभावना ये दो प्रकार की भावनाएँ मानी गई हैं। उनके ग्रन्थों में कथन है कि लिङ् लोट् और तव्य ये प्रत्यय शब्दभावना और अर्थभावना को ही कहते हैं। संपूर्ण अर्थों में व्याप्त "करोत्यर्थ' रूप अर्थभावना तो संपूर्ण तिङन्त से आख्यात–दशों लकारों में विद्यमान है। यह अर्थभावना शब्दभावना से भिन्न ही है। इन दोनों भावनाओं में शब्दभावना तो शब्द के व्यापार रूप है क्योंकि शब्द के द्वारा ही पुरुष का व्यापार भावित किया जाता है और पुरुष व्यापार के द्वारा “यज्" "पच्" आदि धातुओं का अर्थ भावनारूप किया जाता है । तथा धातु के अर्थ से फल भावित किया जाता है यह शब्दभावनावादी भाट्टों का मत है, किन्तु उनका यह मत ठीक नहीं है क्योंकि शब्द का व्यापार शब्द का अर्थ नहीं हो सकता है । "स्वर्ग की इच्छा रखने वाला पुरुष अग्निष्टोम वाक्य से यज्ञ को करे" इस प्रकार के शब्द से उस शब्द का व्यापार रूप यज्ञ प्रतिभासित नहीं होता है। वही शब्द अपने ही व्यापार का प्रतिपादक भला कैसे हो सकेगा? एक ही शब्द स्वयं प्रतिपाद्य और प्रतिपादक इन दोनों रूप हो यह बात विरुद्ध है । वेदवाक्य के उच्चारण के समय प्रतिपादक शब्द का स्वरूप तो पहले से ही सिद्ध है और भविष्य में होने योग्य प्रतिपाद्य विषय का स्वरूप तो उस काल में असिद्ध है । अतएव अग्निष्टोम, ज्योतिष्टोम आदि की भावना कराने वाले वाक्यों से अनुष्ठाता पुरुष का यज्ञ में प्रवृत्ति कराने रूप व्यापार कैसे भावित किया जावेगा तथा पुरुष के व्यापार से यज्ञ करने रूप धातु का अर्थ भी कैसे भावित किया जावेगा? तथैव धातु के अर्थ से चिरकाल में होने वाला स्वर्ग नाम का फल कैसे भावनायुक्त किया जावेगा कि जिससे आप भाट्ट के कथनानुसार भावना करने योग्य, भावना करने वाला तथा भावना का कारण इन तीन रूप से तीन अंशों से परिपूर्ण होती हुई भावना का विचार किया जा सके अथवा तीन अंश वाली भावना आत्मा में विशेषतया भायी जा सके ? अतः शब्दभावना वाक्य का अर्थ नहीं है। यदि पुरुष का व्यापार भावना है तब तो पुरुष यज्ञादि के द्वारा स्वर्ग को भावित करता है, किन्तु इस प्रकार यज्ञ से भावित किया गया फल तो शब्द का अर्थ नहीं है। क्योंकि शब्द के बोलते समय स्वर्ग सन्निहित नहीं है। शब्द सुनने के पश्चात् न जाने कितने दिन बाद यज्ञ किया जावेगा और बहुत दिन पीछे मरने के बाद कदाचित् स्वर्ग मिल सकेगा अतः अनेक दूषणों से दूषित होने से 'भावना' वेदवाक्य का अर्थ नहीं है।
इस प्रकार से पुरुष के व्यापार में शब्द व्यापार के समान और धातु के अर्थ में पुरुष व्यापार के समान फल में जो धातु का अर्थ है वह भावना हो, ऐसा प्रसंग नहीं आता है। अर्थात् पुरुष के व्यापार में शब्द का व्यापार है तथा धात्वर्थ में पुरुष का जो व्यापार है वह भावना है । उसी प्रकार से फल में धात्वर्थ भावना नहीं है अन्यथा वह शुद्ध धात्वर्थ सन्मात्ररूप होने से विधि-ब्रह्माद्वैत रूप हो जावेगा किंतु ऐसा है नहीं।
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