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भावनावाद ] प्रथम परिच्छेद
। १२१ स्वव्यापारस्य का प्रतीयते इति चेत् प्रत्यक्षविषयस्य कथम् ? प्रतिपत्तुरभ्याससामर्थ्यात्प्रत्यक्षस्य विषये फलयोग्यतानिश्चय इति चेत् 'तत एव च कर्तुः स्वव्यापारे 'तद्योग्यतानिश्चयोस्तु–सर्वथा विशेषाभावात् ।
[ बौद्धो भेदं काल्पनिकं वक्ति, किंतु भाट्टो वास्तविकं मन्यते ] यदप्यवादि प्रज्ञाकरेण
सौगत-फल की योग्यता अनुभव में आती है।
भाद्र-पुनः वेदवाक्य से भी उसी प्रकार से–फल की योग्यता के अनुभव से ज्ञान हो जावे क्या बाधा है ?
सौगत-स्वर्गादि फल तो अतीन्द्रिय हैं-इन्द्रियों से नहीं जाने जाते हैं अतः अपने यागादि लक्षण व्यापार की यह योग्यता है इस प्रकार से यज्ञकर्ता को कैसे अनुभव आयेगा?
भाद-प्रत्यक्ष के विषय की योग्यता का अनुभव कसे आता है अर्थात् प्रत्यक्ष से जलादि को देख लेने पर तत्क्षण ही इस जल में स्नान पान आदि की योग्यता है सभी को ऐसा कैसे मालम होता है ?
बौद्ध-जानने वाले के अभ्यास की सामर्थ्य से प्रत्यक्ष के विषय जलादि में फल-स्नान-पानादि की योग्यता का निश्चय हो जाता है।
भाट्ट-उसी प्रकार से शांतिक, पौष्टिक आचरण रूप फल के अभ्यास से यज्ञकर्ता को याग लक्षण अपने व्यापार में उस फल की योग्यता का निश्चय हो जावे, दोनों में कोई अन्तर नहीं है।
भावार्थ-बौद्ध ने भाद्र के सामने यह समस्या रखी है कि जिस समय "अग्निष्टोमेन यजेत" ऐसा वेदवाक्य सुना और उसका अर्थ यह समझा कि यज्ञ रूप कार्य मेरा अवश्य करणीय कर्तव्य है। क्या उस समय उस समझने वाले पुरुष को उस यज्ञ के फल स्वर्गादि दीखते हैं ? यदि नहीं दिखते हैं तो फल को देखे बिना, समझे बिना वह पुरुष यज्ञ को करने में प्रवृत्ति कैसे करेगा?
और यदि करेगा तो भी उसकी यज्ञ क्रिया की सफलता भी कैसे मानी जावेगी? इस पर भाट्ट ने बौद्धों को समझाया है कि भाई ! आप बौद्ध भी तो प्रत्यक्ष से जब जल को देखते हो तो क्या उस जल का स्नान पान आदि फल आपको दिख रहा है ? यदि फल के नहीं दीखने पर भी आप उस फल की योग्यता का अनुभव करके प्रत्यक्ष से हुए जल के ज्ञान को सत्य मानते हो और उसमें प्रवृत्ति करते-कराते हो तब तो हमारे वेद वाक्यों से भी यज्ञ कार्य में प्रवृत्ति मान लो क्योंकि उसका फल स्वर्ग है, इस प्रकार से फल की योग्यता वेदवाक्य के श्रवण के समय अनुभव में आ जाती है जैसे कि जल को प्रत्यक्ष से देखने से उस जल से प्यास बुझाना, स्नान करके स्वच्छ-शुद्ध होना आदि रूप फल
1 यज्ञका। 2 (भट्टः) तहि प्रत्यक्षस्य सलिलादेः पुरुषेण स्वव्यापारस्य स्नानपानादिक्रियायोग्यता कथं निश्चीयते ? 3 जलादी। 4 शान्तिकपौष्टिकाचरणफलाभ्यासात् । (ऐहिकामुत्रिकेपि)। 5 यज्ञकर्तः। 6यागलक्षणे । 7 फलयोग्यतानिश्चयः। 8 भट्ट आह ।--यदपि वक्ष्यमाणमवादि प्रज्ञाकरेण । (तदपि न परीक्षाक्षममिति सम्बन्धः)।
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