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अष्टसहस्री
[ कारिका ३"यजते पचतीत्यत्र भावना न प्रतीयते । यज्याद्यर्थातिरेकेण तस्या वाक्यार्थता कुतः ?
पाकं करोति यागं च यदि भेदः प्रतीयते । एवं सत्यनवस्था स्यादसमञ्जसताकरी"4॥ 'करोति यागं स्वव्यापारं निष्पादयति यागनिष्पत्ति निर्वर्त्तयति व्यपदेशा एते यथाकथञ्चिद्धदपरिकल्पनपुरस्सराः । 'नतेभ्योस्ति 1पदार्थतत्त्व व्यवस्थेति । शिलापूत्र12कस्य शरीरमिति भेदव्यवहारो भेदमन्तरेणापि दृश्यते । "यथा द्विजस्य व्यापारो याग इत्यभिधीयते । तत: 13परापुनदृष्टा करोतीति न हि क्रिया ॥ यजि किया च 14द्रव्यस्य 15विशेषादपरा न हि16 1 1 सामानाधिकरण्येन देवदत्ततया गतेः ॥इति॥" तदपि न परीक्षाक्षमम् ।
की योग्यता अनुभव में आ रही है । अतः पुरुष के द्वारा किया गया यज्ञ स्वर्गादि फल सहित है निष्फल नहीं है।
। बौद्ध भेद को काल्पनिक सिद्ध करना चाहता है किन्तु भाट्ट भेद को वास्तविक मान रहा है ।
प्रज्ञाकर बौद्ध-श्लोकार्थ- यजते, पचति इसमें भावना का अनुभव नहीं आता है क्योंकि यज्ञादि अर्थ के अतिरिक्त उस भावना की वाक्यार्थता कैसे होगी? ॥१॥
श्लोकार्थ-यदि “पाकं करोति", "यागं करोति" पकाता है, यज्ञ करता है ऐसा भेद प्रतीति में आता है ऐसा मानोगे तब तो असमंजसता को करने वाली अनवस्था आ जावेगी ॥२॥
याग को करता है, अपने यज्ञरूप व्यापार को निष्पन्न करता है, याग की निष्पत्ति को बनाता है ये शब्द यथाकथंचित्-प्रकृति प्रत्ययादि भेद बिना भी भेद की कल्पना पूर्वक होते हैं। इन व्यपदेशों से भी पदार्थ-तत्त्व की व्यवस्था नहीं हो सकती है क्योंकि शिला पुत्रक-केतु का यह शरीर है ऐसे भेद का व्यवहार बिना भेद के भी देखा जाता है।
इलोकार्थ-"जिस प्रकार से द्विज- ब्राह्मण का व्यापार याग-यज्ञ है ऐसा कहा जाता है पुनः उससे भिन्न करोति यह क्रिया नहीं देखी जाती है" ॥१॥
लोकार्थ-"यजि क्रिया-यज्ञ की क्रिया द्रव्य-पुरुष के विशेषण से भिन्न नहीं है क्योंकि
1 करोतीत्यर्थः । (ब्या० प्र०) 2 पचन । यज्ञाद्यर्थस्य इति वा पाठः क्वचित् लभ्यते । (ब्या० प्र०) 3 अतिरेको नामाऽऽधिक्यम् । 4 वितथ । (ब्या० प्र०) 5 कथमनवस्थेत्याशङ्कयाह। 6 शब्दाः। 7 प्रकृतिप्रत्ययादिभेदमन्तरेणापि। 8 वर्तन्ते इति शेषः। 9 व्यपदेशेभ्यः। 10 यदि यागं करोतीत्यत्र भावनाख्यपदार्थतत्त्वव्यवस्था तदा स्वव्यापारं निष्पादयतीत्यत्रापि भावनान्तराणां व्यवस्था भविष्यतीति भावः । (यजते यागं करोतीति भेदव्यवहारे सत्यपि तदभिधेयतत्त्व (भावनाख्य) स्य कथं भेदेऽनवस्था न स्यादित्याशङ्कायामाह)। 11 यजते यागं करोतीत्यत्राभेदेपि भेदस्त्वया शितो यजनार्थस्त्वेक एवेत्यभेद दर्शयन्नाह। 12 केतोः। 13 यागात् । यागस्य व्यापाररूपत्वात्ततो भिन्ना करोतीति क्रिया न दृश्यते इति भावः। 14 पुरुषस्य। 15 विशेषणात् । 16 देवदत्तत्वेन प्रापणात् । 17 केन कृत्त्वा प्रापणमित्याह सामानाधिकरण्येति ।
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