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भावनावाद ]
प्रथम परिच्छेद
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'दवाक्यार्थत्वम्' । नियोगविशिष्टत्वाच्च भावनायास्तथा प्रतिपादने 'नियमेन प्रवर्त्तते । 'कथं चासौ कर्त्ता स्वव्यापारं प्रतीयन्नेव प्रवर्त्तते । 'अन्यथा स्वव्यापारे एव न
'चोदितो भवेत् ।
व्यापार
प्रवृत्त होता है । और नियोग तत् शेष होने से अप्रधान है अतः वह वेदवाक्य का अर्थ नहीं है । अर्थात् नियोग शब्द से शब्द भावना लेना वह शब्द भावना अर्थ भावना का विशेषण है वह अप्रधान होने से मुख्यतया वेदवाक्य का अर्थ नहीं हो सकती है । "इदं कुरु" इस प्रकार से भावना नियोग से विशिष्ट है ऐसा प्रतिपादन करने से नियम से प्रवृत्त होता है अर्थात् विशेषण विशेष्य भाव परस्पर में अविनाभावी हैं ।
यदि प्रेरित किया जाने पर भी प्रवृत्त नहीं होता है ऐसा मानों तो यह कर्त्ता अपने व्यापार का अनुभव करता हुआ ही कंसे प्रवृत्ति करेगा अन्यथा - यदि स्वव्यापार की प्रतीति न मानो तो अपने व्यापार में भी वह पुरुष प्रेरित नहीं हो सकेगा ।
भावार्थ - प्रभाकर नियोग को प्रत्यय ( विभक्ति) के अर्थ रूप ही मानता है अतः "देवदत्तयज्ञदत्तो कटं कुरूतः” देवदत्त और यज्ञदत्त दोनों चटाई को बनाते हैं । इसमें कारक के भेद से प्रत्यय "कुरुतः " क्रिया में भेद हो गया है इसी प्रकार से "आस्यते" यह सत्ता रूप धात्वर्थ क्रिया है किसी ने कहा कि "देवदत्तजिनदत्तयज्ञदत्तैः आस्यते" देवदत्त, जिनदत्त और यज्ञदत्त के द्वारा बैठा जाता है ।
इस वाक्य में भी कारक तीन पुरुष हैं और बैठने रूप क्रिया का तीनों से सम्बन्ध है अतः यहाँ भी कारक के भेद से क्रिया के प्रत्यय में भेद होना चाहिये - एकवचन रूप क्रिया न होकर बहुवचन होना चाहिए क्योंकि यह बैठक रूप क्रिया भी तो पुरुष के द्वारा ही निष्पाद्य-करने योग्य है । हम योगाचार के यहाँ तो ये दोष नहीं आते हैं क्योंकि हम लोग विवक्षा के निमित्त से ही कारक के व्यापार रूप क्रिया में भेद और अभेद की कल्पना करते हैं । इस पर भाट्ट ने उत्तर दिया कि आप बौद्धों का कथन श्रेयस्कर नहीं है क्योंकि वास्तविक रूप से भेद और अभेद का व्यवहार नहीं है यदि मानोगे तब तो भेद और अभेद की विवक्षा से उस प्रकार का भेद - अभेद रूप व्यवहार भी सत्य ही मानना पड़ेगा । " पुनः करोति" क्रिया का अर्थ देवदत्तकत्तू के ही है, वही शब्द का व्यापार है, उसे ही तो हम शब्द भावना कहते हैं और कर्त्ता रूप पुरुष के व्यापार को अर्थ भावना कहते हैं क्योंकि पुरुष ही "अग्निष्टोमेन यजेत् स्वर्ग काम:” ऐसे वाक्य से प्रेरित होता हुआ यज्ञ करने रूप अपने व्यापार में प्रवृत्ति करता है । अत: नियोग ही शब्द भावना है जो कि पुरुष के व्यापार रूप अर्थ भावना का विशेषण है अतः
1 मुख्यत्वेनेति शेषः । गुणवृत्त्या चेदस्ति तहि कथम् ? 2 स चोदितः कथं स्वव्यापारे प्रवर्तत इति । ( ब्या० प्र० ) 3 इदं कुर्विति नियोगनिष्ठत्वेन । 5 विशेषणविशेष्यनान्तरीयकत्वादिति भावः । 4 प्रेर्यमाणोपि न प्रवर्त्तते चेत् । 6 स्वव्यापाराप्रतीयमानत्वे । 7 पुरुषः ।
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